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________________ २३४ जैन दर्शन कहा गया है। मायाचार तियंच मायु का; अल्पारंभ, अल्प परिग्रह, व स्वभाव की मृदुता मनुष्य आयु का; तथा संयम व तप वेवायु का बंध कराते हैं । इनमें देव और मनुष्य आयु का बंध शुभ व नरक और तिर्यच आयु का बंध अशुभ कहा गया है । पर-निंदा, आत्म-प्रशंसा, सद्भूतगुणों का आच्छादन तथा असद्भूत गुणों का उद्भावन, ये नीचगोत्र; तथा इनसे विपरीत प्रवृत्ति, एवं मान का अभाव और विनय, ये उच्चगोत्र बंध के कारण हैं। यहां पर स्पष्टतः उच्चगोत्र का बंध शुभ व नीच गोत्र का बंध अशुभ होता है। नामकर्म की जितनी उत्तर प्रकृतियां बतलाई गई हैं, वे उनके स्वरूप से ही स्पष्टतः दो प्रकार की हैं-शुभ व अशुभ । इनमें अशुभ नामकर्म-बंध का कारण सामान्य से मन-वचन-काय योगों की वक्रता व कुत्सित क्रियाएं; और साथ-साथ मिथ्याभाव, पैशुन्य, चित्त की चंचलता, झूठे नाप-तोल रखकर दूसरों को ठगने की वृत्ति आदि रूप बुरा आचरण है; और इनसे विपरीत सदाचरण शुभ नाम कर्म के बंध का कारण है । नामकर्म के भीतर तीर्थकर प्रकृति बतलाई गई है, जो जीव के शुभतम परिणामों से उत्पन्न होती है । ऐसे १६ उत्तम परिणाम विशेष रूप से तीर्थंकर गोत्र के कारण बतलाये गये हैं। जो इस प्रकार हैं सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनय-संपन्नता, शीलों और व्रतों का निर्दोष परिपालन, निरन्तर ज्ञान-साधना, मोक्ष की ओर प्रवृत्ति, शक्ति अनुसार त्याग और तप, भले प्रकार समाधि, साधु जनों का सेवा-सत्कार, पूज्य आचार्य विशेष विद्वान व शास्त्र के प्रति भक्ति, आवश्यक धर्मकार्यों का निरन्तर परिपालन धार्मिक-प्रोत्साहन व धर्मीजनों के प्रति वात्सल्य-भाव । स्थितिबन्ध ये कर्म-प्रकृतियां जब बंध को प्राप्त होती हैं, तभी उनमें जीव के कषायों की मंदता व तीव्रता के अनुसार यह गुण भी उत्पन्न हो जाता है कि वे कितने काल तक सत्ता में रहेंगे, और फिर अपना फल देकर झड़ जायेंगे। इसे ही कर्मों का स्थितिबंध कहते हैं। यह स्थिति जीव के परिणामानुसार तीन प्रकार की होती हैं जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, व अन्तराय, इन तीन कर्मों की जघन्य अर्थात् कम से कम स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागर की होती है । वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ाकोड़ी सागर की। मोहनीय कर्म की जघन्यस्थिति अन्तमुहूर्त, और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा. कोड़ी सागर की। आयुकर्म की क्रमशः अन्तमुहूंत और ३३ सागर की; तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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