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________________ आदि तीर्थंकर और वातरशना मुनि आदि तीर्थंकर और वातरशना मुनि इन त्रेसठ शलाका पुरुषों में सबसे प्रथम जैनियों के आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ हैं, जिनसे जैनधर्म का प्रारम्भ माना जाता है । उनका जन्म उक्त चौदह कुलकरों में से अन्तिम कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी से हुआ था । अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् वे राजसिंहासन पर बैठे और उन्होंने कृषि, असि, मसि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन छह आजीविका के साधनों की विशेष रूप से व्यवस्था की, तथा देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन किया । इनके दो पुत्र भरत और बाहुबलि, तथा दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुन्दरी थीं, जिन्हें उन्होंने समस्त कलाएं व विद्याएं सिखलाई । एक दिन राज्य सभा में नीलांजना नाम की नर्तकी की नृत्य करते करते ही मृत्यु हो गई। इस दुर्घटना से ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया, और वे राज्य का परित्याग कर तपस्या करने वन को चले गये । उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत राजा हुए, और उन्होंने अपने दिग्विजय द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया उनके लघु भ्राता बाहुबलि भी विरक्त होकर तपस्या में प्रवृत्त हो गये । 3 जैन पुराणों में ऋषभदेव के जीवन व तपस्या का तथा केवलज्ञान प्राप्त कर धर्मोपदेश का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । जैनी इसी काल से अपने धर्म की उत्पत्ती मानते हैं । ऋषभदेव के काल का अनुमान लगाना कठिन है । उनके काल की दूरी का वर्णन जैन पुराण सागरों के प्रमाण से करते हैं । सौभाग्य से ऋषभ - देव का जीवन चरित्र जैन साहित्य में ही नहीं, किन्तु वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है । भागवत पुराण के पांचवें स्कंध के प्रथम छह अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन व तपश्चरण का वृतान्त वर्णित है, जो सभी मुख्य मुख्य बातों में जैन पुराणों से मिलता है । उनके माता पिता के नाम नाभि और मरुदेवी पाये जाते हैं, तथा उन्हें स्वयंभू मनु से पांचवीं पीढ़ी में इस क्रम से हुए कहा गया है— स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीध्र, नाभि और ऋषभ। उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य देकर सन्यास ग्रहण किया । वे नग्न रहने लगे और केवल शरीर मात्र ही उनके पास था । लोगों द्वारा तिरस्कार किये जाने, गाली-गलौच किये जाने व मारे जाने पर भी वे मौन ही रहते थे । अपने कठोर तपश्चरण द्वारा उन्होंने कैवल्य की प्राप्ति की, तथा दक्षिण कर्नाटक तक नाना प्रदेशों में परिभ्रमण किया । वे कुटकाचल पर्वत के वन में उन्मत्त की नाई नग्नरूप में विचरने लगे । बांसों की रगड़ से वन में आग लग गई और उसी में उन्होंने अपने को भस्म कर डाला । Jain Education International ११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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