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जीव तत्त्व
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इसी द्रव्य की व्याप्ति के कारण जीवों व पुद्गलों का एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन सम्भव होता है, जिसप्रकार कि जल मछली के गमनागमन का माध्यम बनता है । इस प्रकार 'धर्म' शब्द का यह प्रयोग शास्त्रीय है, और उसकी नैतिक आचरण आदि अर्थवाचक 'धर्म' से भ्रान्ति नहीं करनी चाहिये ।
अधर्म-द्रव्य
जिस प्रकार धर्म दव्य जीव और पुद्गलों के स्थानान्तरण रूप गमनागमन का माध्यम है, उसी प्रकार अधर्म-द्रव्य चलायमान पदार्थ के रुकने में सहायक होता है, जिसप्रकार कि वृक्ष की छाया श्रान्त पथिक को रुकने में निमित्त होती है।
आकाश-द्रव्य
चौथा अजीव द्रव्य आकाश है, और उसका गुण है -जीवादि अन्य सब द्रव्यों को अवकाश प्रदान करना । आकाश अनन्त हैं; किन्तु जितने आकाश में जीवादि अन्य द्रव्यों की सत्ता पाई जाती है वह लोकाकाश कहलाता है, और वह सीमित है । लोकाकाश से परे जो अनन्त शुद्ध आकाश है, उसे अलोकाकाश कहा गया है। उसमें अन्य किसी द्रव्य का अस्तित्व न है, और न हो सकता; क्योंकि वहां गमनागमन के साधनभूत धर्म द्रव्य का अभाव है । आकाश द्रव्य का अस्तित्व सभी दर्शनों तथा आधुनिक विज्ञान को भी मान्य है। किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्यों की कल्पना जैन दर्शन की अपनी विशेषता है। द्रव्य की आकाश में स्थिति होती है, गमन होता है और रुकावट भी होती है। सामान्यतः ये तीनों अर्थक्रियाएं आकाश गुण द्वारा ही सम्भव मानी जाती हैं । किन्तु सूक्ष्म विचारानुसार एक द्रव्य द्वारा अपने शुद्ध रूप में एक ही प्रकार की क्रिया संभव मानी जा सकती है। विशेषतः जब वे क्रियाएं परस्पर कुछ विभिन्नता को लिये हुए हों, तब हमें यह मानना ही पड़ेगा कि उनके कारण व साधनभूत द्रव्य भिन्न भिन्न होंगे । इसी विचारधारानुसार लोकाकाश में उक्त तीन अर्थ-क्रियाओं के साधनरूप तीन पृथक्-पृथक् द्रव्य अर्थात् आकाश, धर्म और अधर्म की कल्पना की गई है । आधुनिक भौतिक वैज्ञानिकों का एक ऐसा भी मत है कि आकाश में जहां तक भौतिक तत्वों की सत्ता पाई जाती है, उसके परे उनके गमन में वह आकाश रुकावट उत्पन्न करता है। जैन सिद्धान्तानुसार यह परिस्थिति इस कारण उत्पन्न होती है, क्योंकि उस अलोकाकाश में गमन के साधनभूत धर्म द्रव्य का अभाव है।
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