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________________ २०८ जैन साहित्य अवतरण-~-६ महाराष्ट्री प्राकृत जत्थ कुलुक्क-निवाणं परिमल-जम्मो जसो कुसुम-दामं । नहमिव सव्व-गओ दिस-रमणीण सिराइं सुरहेइ ॥१॥ सव्व-वयाणं मज्झिम-वयं व सुमणाण जाइ-सुमणं व । सम्माण मुत्ति-सम्मं व पुहइ-नयराण जं सेयं ॥२॥ चम्म जाण न अच्छी णाणं अच्छीइं ताण वि मुणीण । विअसन्ति जत्थ नयणा किं पुण अन्नाण नयणाइं ॥३॥ गुरुणो वयणा वयणाइं ताव माहप्पमवि य माहप्पो । ताव गुणाई पि गुणा जाव न जस्सिं बुहे निअइ ॥५॥ हरि-हर-विहिणो देवा जत्थन्नाइँ वसन्ति देवाइं । एयाए महिमाए हरिओ महिमा सुर-पुरीए ॥५॥ जत्थञ्जलिणा कणयं रयणाइँ वि अञ्जलीइ देइ जणो । कणय-निही अक्खीणो रयण-निही अक्खया तह वि ॥६॥ तत्थ सिरि-कुमारवालो बाहाए सव्वओ वि धरिअ-धरो । सुपरिट्ठ-परीवारो सुपइट्ठो आसि राइन्दो ॥७॥ (कुमारपाल-चरित, १, २२-२८) (अनुवाद) उस अणहिलपुर नगर में चालुक्य-वंशी राजाओं का यश आकाश की समस्त दिशाओं में ऐसा फैल रहा था, जैसे मानों दिशा रूपी रमणियों के मस्तकों को उनके जूड़े की पुष्पमाला का परिमल सुगंधित कर रहा हो । जैसे सब बयों में मध्यम-वय (यौवन), पुष्पों में चमेली का पुष्प व सुखों में मोक्ष का सुख श्रेष्ठ माना गया, उसी प्रकार पृथ्वी भर के नगरों में अणहिलपुर श्रेष्ठ था। जिनके चर्म चक्षु नहीं हैं, केवल ज्ञान रूपी आँखें हैं, ऐसे मुनियों के नेत्र भी उस नगर को देखने के लिये विकसित हो उठते थे, दूसरों के नेत्रों की तो बात ही क्या ? गुरु (बृहस्पति) के वचन तभी तक वचन थे, माहात्म्य भी तभी तक माहात्म्य था, और गुण भी तभी तक थे, जब तक किसी ने इस नगरी के विद्वानों को नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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