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________________ १७० जैन साहित्य समस्यापूर्ति काव्य है, जिसमें कालिदास कत मेघदूत की पंक्तियां प्रत्येक पद्य के अन्तचरण में निबद्ध कर ली गई हैं। पार्श्वनाथ पर प्राचीन संस्कृत काव्य जिनसेन कृत (९ वीं शती) पाश्र्वाभ्युदय है। इसमें उत्तम काव्य रीति से समस्त मेघदूत के एक-एक या दो-दो चरण प्रत्येक पद्य में समाविष्ट कर लिये गये हैं। पार्श्वनाथ का पूर्ण चरित्र वादिराजकत (१०२५ ई०) पाश्र्वनाथ चरित में पाया जाता है । इसी चरित्र पर १३ वी व १४ वीं शती में दो काव्य लिखे गये, एक माणिक्यचन्द्र द्वारा (१२१६ ई०) और दूसरा भावदेव सूरि द्वारा (१३५५ ई०) । भावदेव कृत चरित का अनुवाद अंग्रेजी में भी हुआ है । १५ वीं शती में सकलकीति ने व १६ वीं शती में पद्मसुन्दर और हेमविजय ने संस्कृत में पार्श्वनाथ चरित्र बनाये । १६ वीं शती में ही श्रीभूषण के शिष्य चन्द्रकीर्ति ने पाशवपुराण की रचना की। विनयचन्द्र और उदयवीरगणि कृत पार्श्वनाथ चरित्र मिलते हैं । इनमें से उदयवीर की रचना संस्कृत गद्य में हुई है । महावीर के चरित्र पर १८ सर्गों का सुन्दर संस्कृत काव्य वर्धमान चरित्र (शक ९१०) असग कृत पाया जाता है । गुणभद्र कृत उत्तरपुराण में तथा हेमचन्द्र कृत त्रिषष्ठि शलाका पुरुष च० के दशवें पर्व में जो महावीर चरित्र वर्णित है, वह स्वतन्त्र प्रतियों में भी पाया और पढ़ा जाता है । सकलकीर्ति कृत वर्धमानपुराण (वि० सं० १५१८) १९ सर्गों में है । पद्मनन्दि, केशव और वाणीवल्लभ कृत वर्धमान पुराण मी पाये जाते हैं। जैन तीर्थंकरों के उपयुक्त चरित्रों में से अधिकांश संस्कृत महाकाव्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। उनकी विषयात्मक रूप-रेखा का विवरण उनके प्राकृत चरित्रों के प्रकरण में दिया जा चुका है। भाव और शैली में वे उन सब गुणों से संयुक्त पाये जाते हैं, जो कालिदास, भारवि, माघ, प्रादि महाकवियों की कृतियों में पाये जाते हैं, तथा जिनका निरूपण काव्यादर्श आदि साहित्य-शास्त्रों में किया गया है। जैसे, उनका सर्गबन्ध होना, आशीः, नमस्क्रिया या वस्तुनिर्देश पूर्वक उनका प्रारम्भ किया जाना, तथा उनमें नगर, वन, पर्वत, नदियों तथा ऋतुओं आदि प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन, जन्म विवाहादि सामाजिक उत्सवों एवं रसों, शृगारात्मक हाव, भाव, विलासों; तथा सम्पत्ति-विपत्ति में व्यक्ति के सुख-दुःखों चढ़ाव-उतार का कलात्मक हृदयग्राही चित्रण का समावेश किया जाना । विशेषता इन काव्यों में इतनी और है कि उनमें यथास्थान धार्मिक उपदेश का भी समावेश किया गया है। तीर्थंकरों के चरित्रों के अतिरिक्त नाना अन्य सामाजिक महापुरुषों व स्त्रियों को चरित्र-चित्रण के नायक-नायिका बनाकर व यथासम्भव भाषा, शैली व भावों में काव्यत्व की रक्षा करते हुए जो अनेक रचनायें Jain-Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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