SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ जैन साहित्य के कर्णाभरणरूप अर्थात् उनकी प्रेरणा से उन्हें सुनाने के लिये रचा गया था। इसका रचनाकाल अनुमानतः १५ वीं शती या उसके आसपास होगा। अंतिम तीर्थंकर पर जयमित्र हल्ल कृत वड्ढमाण-कन्वु मिलता है, जिसमें ११ संधियां हैं । यह काव्य देवराय के पुत्र संघाधिप होलिवर्म के लिये लिखा गया था। इसकी एक हस्तलिखित प्रति वि० सं० १५४५ की मिली है। अतएव ग्रंथ इससे पूर्व रचा गया है । इस काव्य की अंतिम ६ संधियों में राजा श्रेणिक का चरित्र वर्णित है, जो अपने रूप में पूर्ण है और पृथक रूप से भी मिलता है। रयधकृत सम्मइणाह चरिउ दस संधियों में समाप्त हुआ है। इसमें कवि ने अपने गुरु का नाम यशःकीर्ति प्रकट किया है। अतएव इसका रचनाकाल वि० सं० १५०० के आसपास होना चाहिये। नरसेन कृत वड्ढमाणकहा वि० सं० १५१२ के लगभग लिखी गई है । जैन ग्रंथावली में जिनेश्वर सूरि के शिष्य द्वारा रचित अपभ्रश महावीर-चरित का उल्लेख है । अपभ्रंश चरितकाव्य तीर्थंकरों के चरित्रों के अतिरिक्त अपभ्रंश में जो अन्य चरित्र काव्य की रीति से लिखे गये, वे निम्नप्रकार हैं : ___ 'तिसट्ठि-महापुरिस-गुणालंकार' के महाकवि पुष्यदंत कृत अन्य रचनाएं हैं---जसहर-चरिउ और णायकुमार-चरिय । यशोधर का चरित्र जैन साहित्य में हिंसा के दोष और अहिंसा का प्रभाव दिखलाने के लिये बड़ा लोकप्रिय हुआ है, और उस पर संस्कृत में सोमदेव कृत यशस्तिलक चम्पू से लगाकर, १७वीं शती तक लगभग ३० ग्रंथ रचे गये पाये जाते हैं। इनमें काव्यकला की दृष्टि से संस्कृत में सोमदेव की कृति और अपभ्रंश में पुष्पदंत कृत जसहर चरिउ सर्वश्रेष्ठ हैं। ये दोनों रचनाएँ १० वीं शताब्दि में पांच-सात वर्ष के अन्तर से प्रायः एक ही समय की हैं । जसहरचरिउ चार सन्धियों में विभाजित है । यौधेय देश की राजधानी राजपुर में मारिदत्त राजा की एक कापालिकाचार्य भरवानंद से भेंट हुईं; और उनके आदेशानुसार आकाशगामिनी विद्या प्राप्त करने के लिये राजा ने नरबलि यज्ञ का आयोजन किया। इसके लिए राजा के सेवक जैन मुनि सुदत्त केरुचि शिष्य अभय और उसकी बहन अभयमती को पकड़ लाये । राजा ने उनके रूप से प्रभावित होकर उनका वृतांत पूजा । इस पर प्रभयरुचि ने अपने पूर्व जन्मो का वृतांत कहना प्रारम्भ कियाः-अवन्ती देश में उज्जैनी के राजा यशोंबंधुर का पौत्र व यशोह का पुत्र मैं यशोधर नामका राजा था (१ स०)। यशोधर ने अपनो रानी अमृतमति को एक कुबड़े से व्यभिचार करते देखा, और विरक्त होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy