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________________ १२४ जैन साहित्य पड़ता है, इत्यादि । इस पर प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र, महीमेक, धर्मशेखर आदि कृत टीकाएं पाई जाती हैं। इसका क्लाट द्वारा जर्मन भाषा में अनुवाद भी हुआ है। नंदिषेण (६ वीं शती) कृत प्रजियसंतित्थव (अजित-शान्ति-स्तव) में द्वितीय व सोलहवें तीर्थंकरों की स्तुति की गई हैं, क्योंकि इन दो तीर्थकरों ने, एक प्राचीन मान्यतानुसार शत्रुजय पर्वत की गुफाओं में वर्षा काल व्यतीत किया था; एवं टीकाकार के अनुसार, कवि इसी तीर्थ की यात्रा से इस स्तुति की रचना करने के लिये प्रोत्साहित हुआ था। इन्हीं दो तीर्थकरों की स्तुति जिनवल्लभ (१२ वीं शती) ने उल्लासिक्कमथय द्वारा की है। सुमति गणि के अनुसार जिनवल्लभ पाणिनीय व्याकरण, महाकाव्य, अलंकार शास्त्र, नाट्य, साहित्य, ज्योतिष व न्याय के महान् पंडित थे। वीर गणि ने भी एक प्रजियसंतित्थय स्तोत्र की रचना की है । अभयदेव (११वीं शती) कृत जयति हुयण स्तोत्र भी प्राकृत की एक लालित्य व भक्तिपूर्ण स्तुति है, जिसके फलस्वरूप, कहा जाता है, स्तुतिकर्ता को एक व्याधि से मुक्त होकर स्वास्थ्य लाभ हुआ था। नेमिजिनस्तव एक छोटा सा स्तोत्र है जिसमें ल और म के अतिरिक्त और किसी व्यंजन का उपयोग नहीं किया गया। प्राकृत में महावीरस्तब शब्दालंकार का सुन्दर उदाहरण है, जिसमें एक एक शब्द लगातार तीन तीन बार भिन्न भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । कुछ स्तुतियां ऐसी हैं जिनमें अनेक भाषाओं का प्रयोग किया गया है, जैसे धर्मबर्द्धन (१३वीं शती) कृत पार्वजिनस्तवन, एवं जिनपद्म (१४ वीं शती) कृत शांतिनाथस्तवन । इनमें संस्कृत, महाराष्ट्री, मागधी, शौरसैनी, पैशाची, और अपभ्रंश, इन छह भाषाओं के पद्य समाविष्ट किये गये हैं । कहीं कहीं एक ही पद्य आधा संस्कृत और आधा प्राकृत में रचा गया है। धर्मघोष कृत इसिमंडल (ऋषिमंडल) स्तोत्र में जम्बस्वामी, स्वयंभव, भद्रबाहु आदि आचार्यों की स्तुति की गई है । एक समवशरण स्तोत्र धर्मघोष कृत (२४ गाथाओं का) और दूसरा महाख्यकृत (५२ गाथाओं का) पाये जाते हैं। संस्कृत में काव्य शैली की सर्व प्राचीन दो स्तुतियां समन्तभद्र कृत उपलब्ध हैं। एक वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि वह 'स्वयम्भुवा' शब्द से प्रारम्भ होता है । इसके भीतर २४ तीर्थकरों की पृथक् पृथक् स्तुतियां आ गई हैं। अधिकांश स्तव ५, ५ पद्योंके हैं, एवं समस्त पद्यो की संख्या १४३ है । इनमें वंशस्थ, इन्द्रवजा, वसंततिलका आदि १५,१६ प्रकार के छंदों का उपयोग हुआ है । अर्थ व शब्दालंकार भी खूब आये हैं। तात्त्विक् वर्णन और नैतिक व धार्मिक उपदेश भी खूब आया है इस पर प्रभाचन्द्र कृत संस्कृत टीका मिलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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