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चरणानुयोग-स्त्रोत
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पूर्व में भक्त्यात्मक विचारों के प्रकाशन द्वारा की जाती थीं, जैसाकि हम पूर्वो. क्त कुंदकुदाचार्य कृत प्राकृत व पूज्यपाद कृत संस्कृत भक्तियों में पाते हैं। तत्पश्चात् इन स्तुतियों का स्वरूप दो धाराओं में विकसित हुआ। एक ओर बुद्धिवादी नैयायिकों ने ऐसी स्तुतियां लिखीं जिनमें तीर्थकरों की, अन्यदेवों की अपेक्षा, उत्कृष्टता और गुणात्मक विशेषता स्थापित की गई हैं । इस प्रकार की स्तुतियां प्राप्तीमीमांसादि समन्तभद्र कृत, द्वात्रिशिकाएं सिद्धसेन कृत तथा हेमचन्द्र कृत अन्ययोग व अयोग-व्यवच्छेदिकाएं आदि हैं, जिनका उल्लेख ऊपर जैन न्याय के प्रकरण में किया जा चुका है।
दूसरी धारा का विकास, एक ओर चौबीसों तीर्थंकरों के नामोल्लेख और यत्र तत्र गुणात्मक विशेषणों की योजनात्मक स्तुतियों में हुआ। इस प्रकार की अनेक स्तुतियाँ हमें पूजाओं की जयमालाओं के रूप में मिलती है। क्रमशः स्तोत्रों में विशेषणों व पर्यायवाची नामों का प्राचुर्य बढ़ा। इस शैली के चरम विकास का उदाहरण हमें जिनसेन (हवीं शती) कृत 'जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र' में मिलता है । इस स्तोत्र के आदि के ३४ श्लोकों में नाना विशेषणों द्वारा परमात्म तीर्थकर को नमस्कार किया गया है, और फिर दश शतकों में सब मिलाकर जिनेन्द्र के १००८ नाम गिनाये गये हैं। इन नामों में प्रायः अन्य धर्मों के देवताओं जैसे ब्रह्मा, शिव, विष्णु, बुद्ध, बृहस्पति, इन्द्र आदि के नाम भी आ गये हैं। इसी के अनुसार पं० आशाधर (१३वीं शती), देवविजयगणि (१६वीं शती), विनयविजय उपाध्याय (१७ वीं शती) व सकलकीर्ति आदि कृत अनेक जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र उपलब्ध हैं। सिद्धसेन दिवाकर कृत जिनसहस्त्रनामस्तोत्र का भी उल्लेख मिलता है । . दूसरी ओर काव्य प्रतिभाशाली स्तुतिकारों ने ऐसे स्तोत्र लिखे, जिनमें तीर्थकरों का गुणानुवाद भक्ति भाव पूर्ण, छन्द, अलंकार व लालित्य युक्त कविता में पाया जाता है और इस प्रकार ये रचनायें जैन साहित्य में गीति काव्य के सुन्दर उदाहरण हैं । प्राकृत में इस प्रकार का अति प्राचीन उवसग्गहर स्तोत्र है, जो भद्र बाहु कृत कहा जाता है । इसमें पांच गाथाओं द्वारा पार्श्वनाथ तीर्थकर की स्तुति की गई है। धनपाल कृत ऋषभ पंचाशिका में ५० पद्यों द्वारा प्रथम तीर्थंकर के जीवन चरित्र संबंधी उल्लेख आये हैं। यह स्तुति कला और कल्पना पूर्ण है, और उसमें अलंकारों की अच्छी छटा पायी जाती है । कवि के शब्दों में जीवन एक महोदधि है, जिसमें ऋषभ भगवान् ही एक नौका हैं । जीवन एक चोर डाकुओं से व्याप्त वन है, जिसमें ऋषम ही एक रक्षक हैं । जीवन मिथ्यात्व मय एक रात्रि है, जिसमें ऋषभ ही उदीयमान सूर्य हैं । जीवन वह रंगमंच है जहां से प्रत्येक पात्र को अन्त में प्रस्थान करना ही
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