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________________ ११४ जैन साहित्य है, और वह १५ अध्यायों में विभाजित है जिनमें धर्म का स्वरूप, मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का भेद, सप्त तत्व, अष्ट मूलगुण, बारह व्रत और उनके अतिचार, सामायिक आदि छह आवश्यक, दान पूजा व उपवास, एवं बारह भावनाओं का सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है । अन्तिम अध्याय में ध्यान का वर्णन ११४ पद्यों में किया गया है, जिसमें ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यानफल का निरूपण है । अमितगति ने अपने अनेक ग्रंथों में उनके रचनाकाल का उल्लेख किया है, जिनमें वि० सं० १०५० से १०७३ तक के उल्लेख मिलते हैं। अतएव उक्त ग्रन्थ का रचनाकाल लगभग १००० ई. सिद्ध होता है । आशाधर कृत सागारधर्मामृत लगभग ५०० संस्कृत पद्यों में पूर्ण हा है, और उसमें आठ अध्यायों द्वारा श्रावक धर्म का सामान्य वर्णन, अष्टमूलगुण तथा ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है । व्रत प्रतिमा के भीतर बारह व्रतों के अतिरिक्त श्रावक की दिनचर्या भी बतलाई गई है । अन्तिम अध्याय के ११० श्लोकों में समाधि मरण का विस्तार से वर्णन हुआ है। रचना शैली काव्यात्मक है । ग्रंथ पर कर्ता की स्वोपज्ञ टीका उपलब्ध है, जिसमें उसकी समाप्ति का समय वि० सं० १२६६-ई० १२३६ उल्लिखित है। (प्र० बम्बई, १६१५) गुणभूषण कृत श्रावकाचार को कर्ता ने भव्यजन-चित्तवल्लभ श्रावकाचार कहा है । इसमें २६६ श्लोकों द्वारा दर्शन, ज्ञान और श्रावक धर्म का तीन उद्देश्यों में सरल रीति से निरूपण किया गया है। इसका रचनाकाल निश्चित नहीं है, किन्तु उस पर रत्नकरंड, वसुनंदि श्रावकाचार आदि की छाप पड़ी दिखाई देती है । अनुमानतः यह रचना १४वीं १५वीं शताब्दी की है । श्रावकधर्म सम्बन्धी रचनाओं की परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती प्राई है जिसमें १७वीं शताब्दी में अकबर के काल में राजमल्ल द्वारा रचित लाटीसंहिता उल्लेखनीय है । ध्यान व योग प्राकृत : मुनिचर्या में तप का स्थान बड़ा महत्वपूर्ण है । तप के दो भेद हैं-बाह्य और आम्यन्तर । आम्यन्तर तप के प्रायश्चित्तादि छह प्रभेदों में अन्तिम तप का नाम ध्यान है । अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में विशेषतः ठारणांग (अ० ४ उ० १) में आर्त, रौद्र, धर्म व शुक्ल इन चारों ध्यानों और उनके भेदोपभेदों का निरूपण किया गया है । इसी प्रकार नियुक्तियों में और विशेषतः आवश्यक नियुक्ति के कायोत्सर्ग अध्ययन (गा० १४६२-८६) में ध्यानों के लक्षण व Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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