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चरणानुयोग- श्रावकधर्म
पर योगीन्द्रकृत
तो वह १५ वीं शती की रचनासिद्ध होती है । ग्रन्थ परमात्म प्रकाश तथा देवसेन कृत भावसंग्रह का बहुत प्रभाव पाया जाता है । इसकी एक प्राचीन प्रति जयपुर के पाटोदी जैन मंदिर में वि० सं० १५५५ ( ई० सन् १४६८ ) की है, और इसकी पुष्पिका में " इति उपासकाचारे आचार्य श्री लक्ष्मीचन्द्र विरचिते दोहक -सूत्राणि समाप्तानि” ऐसा उल्लेख है ।
श्रावकाचार संस्कृत :
रत्नकरंड श्रावकाचार - संस्कृत में श्रावक धर्म विषयक बड़ी सुप्रसिद्ध रचना है । इसके १५० श्लोकों में क्रमशः सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का निरूपण किया गया हैं । चरित्र में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का विस्तार से वर्णन किया गया है । तत्पश्चात् सल्लेखना का निरूपण किया गया है, और इस प्रकार कुन्दकुन्द के निर्देशानुसार ( चरित्र पाहुड गा० २५-२६) सल्लेखना को श्रावक के व्रतों में स्वीकार कर लिया है । अन्त में ग्यारह श्रावक - पदों (प्रतिमानों) का भी निरूपण कर दिया गया है । इस प्रकार यहाँ श्रावक धर्म का प्ररूपण, निरूपण की दोनों पद्धतियों के अनुसार कर दिया गया है । ग्रन्थकर्ता ने इस कृति में अपना नाम प्रगट नहीं किया, किन्तु टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसे समन्तभद्र कृत कहा है, और इसी आधार पर यह उन्हीं स्वामी समन्तभद्र कृत मान लिया गया है जिन्होंने आप्तमीमांसादि ग्रन्थों की रचना की किन्तु शैली आदि भेदों के अतिरिक्त भी इसमें आप्तमीमांसा सम्मत प्राप्त के लक्षण से भेद पाया जाता है, दूसरे वादिराज के पार्श्वनाथ चरित्र की उत्थानिका में इस रचना को स्पष्टतः समन्तभद्र से पृथक् 'योगीन्द्र' की रचना कहा है; तीसरे इससे पूर्व इस ग्रन्थ का कोई उल्लेख नहीं मिलता; और चौथे स्वयं ग्रन्थ के उपान्त्य श्लोक में 'वीतकलंक', 'विद्या' और 'सर्वार्थसिद्धि' शब्दों का उपयोग किया गया है जिससे अनुमान होता है कि अकलंकृत राजवार्तिक और विद्यानंदि कृत श्लोक वार्तिक तथा पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि, इन तीनों टीकाओं से ग्रंथकार परिचित और उपकृत थे । इसके अनुसार यह रचना विद्यानंदि और वादिराज के कालों के बीच श्रर्थात् आठवीं से दसवीं - ग्यारहवीं शती तक किसी समय हुई होगी ।
सोमदेवकृत यशस्तिलक चम्पू के पाँच से आठवें तक के चार आश्वासों में चारित्र का वर्णन पाया जाता है। विशेषतः इसके सातवें और आठवें आरवासों में श्रावक के बारह व्रतों का विस्तार से प्रौढ़ शैली में वर्णन किया है । यह ग्रन्थ शक सं० ८८१ ( ई० सन् ६५६ ) में समाप्त हुआ था ।
अमितगति कृत श्रावकाचार लगभग १५०० संस्कृत पद्यों में पूर्ण हुआ
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