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________________ xcii भूमिका जिन आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति चाहे अपने में विशुद्ध ही क्यों न हो विरतिभाव को अवश्य बाधित करती है। व्यक्ति की प्रवृत्ति प्रज्ञापनीय और अप्रज्ञापनीय ऐसी दो प्रकार की होती है। आगम सम्मत प्रवृत्ति प्रज्ञापनीय है और आगम विरुद्ध प्रवृत्ति अप्रज्ञापनीय । गीतार्थ और गीतार्थ की आज्ञा में रहने वाले अन्य साधुओं की प्रवृत्ति आगमविरुद्ध नहीं होती है, क्योंकि गीतार्थ कभी आप्तवचन का उल्लंघन नहीं करता है । गीतार्थ स्वयं चारित्र सम्पन्न होता है और सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले को ऐसा करने से रोकता है। इस तरह दोनों का ही चारित्र शुद्ध बनता है। चारित्र परिशुद्ध तब होता है जब सभी शीलाङ्गों का पालन समवेत रूप से होता है, किन्तु शीलाङ्गों का समवेत पालन सभी नहीं कर सकते । इसका पालन वे ही कर सकते हैं जो मोक्षार्थी संसार से विरक्त होकर जिनाज्ञा की आराधना में तत्पर बना हो, जो शक्ति के अनुरूप आगमोक्त क्रिया में उद्यत हो, जो कर्म दोषों को निर्जरित करता हो, जो सर्वत्र अप्रतिबद्ध होकर तैलपात्रधारक और राधावेधक (उपद्रवों की चिन्ता किये बिना आँख की पुतली को बेधने वाला) की तरह अत्यधिक अप्रमत्तपूर्वक रहे । ऐसा व्यक्ति ही सर्वविरति रूप चारित्र पालने में समर्थ होता है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने कहा है कि आगमोक्त गुणों से युक्त साधु ही साधु होता है । सुवर्ण का दृष्टान्त देते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार सुवर्ण के गुणों से रहित सुवर्ण वास्तविक सुवर्ण नहीं है, उसी प्रकार साधु के गुणों से रहित साधु वास्तविक साधु नहीं है। सुवर्ण के आठ गुण होते हैं - विषघाती, रसायन, मंगलकारी, विनीत, प्रदक्षिणावर्त, गुरुक, अदाह्य और अकुलस्य । इसी प्रकार के गुण साधु में भी पाए जाते हैं । जिस प्रकार उपर्युक्त आठ गुणों से युक्त स्वर्ण ही वास्तविक स्वर्ण होता है, उसी प्रकार गुणरहित वेशमात्र से साधु वास्तविक अर्थ में साधु नहीं होता है। जो औद्देशिक आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार करता है, वह निश्चय ही पृथ्वी आदि षटकाय के जीवों की हिंसा करता है। जो जिनभवन के बहाने अपने आवास का साधन जुटाता है तथा जानते हुए भी सचित्त जल पीता है, वह साधु कैसे हो सकता है ? इस प्रकार सम्पूर्ण शीलाङ्गों से युक्त शुभ अध्यवसाय वाले साधु ही सांसारिक दुःख का अन्त करते हैं, अर्थात् भव विरह को प्राप्त होते हैं, अन्य द्रव्यलिंगी साधु नहीं। पञ्चदश पञ्चाशक यदि किसी कारणवश शीलाङ्गो का अतिक्रमण हो जाता है तो उसकी शुद्धि के लिये आलोचना करनी पड़ती है। अत: पन्द्रहवें पञ्चाशक में आलोचनाविधि का वर्णन किया गया है। अपने दुष्कृत्यों को गुरु के समक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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