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(६) दायक द्वारा भिक्षा लेना ।
आहार है ।
(७) उन्मिश्र – सचित्त बीज, कंद आदि मिला हुआ आहार उन्मिश्र
भूमिका
गर्भवती आदि भिक्षा देने के अयोग्य व्यक्तियों
(८) अपरिणत
पूर्णतया अचित्त न हुआ हो या पूरी तरह पका न हो, ऐसा आहार लेना अपरिणत दोष है I
(९) लिप्त - अखाद्य वस्तु से लिप्त आहार लेना । (१०) छर्दित देते समय आहारादि नीचे गिर रहा हो, ऐसा आहार लेना ।
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उक्त बयालीस दोषों से रहित आहार ही साधुओं के योग्य है । आहार की शुद्धता को जानने के लिये अतीत- अनागत- वर्तमान कालसम्बन्धी विचारणा करने से उसका ज्ञान हो जाता है। जो साधु इसको जानकर और आप्तवचनों को प्रमाण मानकर सम्पूर्ण पिण्डदोषों को दूर करता है, वह जल्दी ही अपनी संयम - यात्रा से मुक्ति को प्राप्त होता है ।
चतुर्दश पञ्चाशक
चौदहवें पञ्चाशक में हरिभद्र ने शीलाङ्गों का निरूपण किया है । श्रमणों के शील सम्बन्धी विविध पहलुओं को शीलाङ्ग कहा गया है। इनकी संख्या अट्ठारह हजार है । ये सभी शीलाङ्ग अखण्ड भावचारित्र वाले श्रमणों में पाए जाते हैं। तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रिय, दस काय और दस श्रमणधर्म इनके पारस्परिक गुणन से अट्ठारह हजार शीलाङ्ग होते हैं, यथा ३ × ३ × ४ × ५ × १० × १० = १८००० । शीलाङ्गों की अट्ठारह हजार की यह संख्या अखण्ड भावचारित्र सम्पन्न मुनि में कभी कम नहीं होती है, क्योंकि प्रतिक्रमण सूत्र में इन अट्ठारह हजार शीलाङ्गों को धारण करने वाले मुनियों को ही वन्दनीय कहा गया है । दूसरे यह कि अट्ठारह हजार में से कोई एक भी भाग न होने पर सर्वविरति नहीं होती है और सर्वविरति के बिना मुनि नहीं होता । अतः बुद्धिमानों को इन शीलाङ्गों के सम्बन्ध में इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिये कि कोई भी एक शीलाङ्ग तभी सम्यक् रूप से परिशुद्ध होता है, जब वह अन्य शीलाङ्गों से युक्त होता है । यदि एक शीलाङ्ग स्वतन्त्र रूप से पूर्ण हो तो वह सर्वविरति रूप नहीं हो सकता, क्योंकि सभी शीलाङ्ग मिलकर ही सर्वविरति रूप होते हैं 1 सर्वविरति रूप शील (सम्यक् चारित्र) अट्ठारह हजार शीलाङ्ग वाला है । शीले की यह अखण्डता या सम्पूर्णता अन्तःकरण के परिणामों की अपेक्षा से होती है ।
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