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________________ Ixxviii भूमिका ५. यतनाद्वार - जिनभवन के निर्माण हेतु लकड़ी लाना, भूमि खोदना आदि कार्यों में जीव-हिंसा न हो या कम से कम हो इसके लिये सावधानी रखनी चाहिये, क्योंकि जीवरक्षा ही धर्म का सार है । यतना धर्म के पालन के लिये आवश्यक है, क्योंकि भगवान् ने यतना में ही धर्म बताया है। यतना प्रवृत्तिरूप होने पर भी निवृत्तिमार्ग की साधक है, क्योंकि यतना से आरम्भादिक हिंसा अल्पतम होती है और इससे अनेक दोष दूर हो जाते हैं, इसी कारण यह यतना परमार्थ से निवृत्तिप्रधान ही है। ___इस प्रकार भूमि-शुद्धि आदि में विधिपूर्वक सावधानी रखने वाले व्यक्ति की जिनमन्दिर-निर्माण सम्बन्धी प्रवृत्तियों में जीवहिंसा होने पर भी वह पापरूप नहीं होती है, अत: परमार्थ से तो वह अहिंसा ही है। इसी प्रकार जिनपूजा, जिनमहोत्सव आदि सम्बन्धी प्रवृत्तियों में अल्पतम हिंसा होते हुए भी वे अधिक जीवहिंसा से निवृत्ति कराने वाली होने के कारण परमार्थ से अहिंसक ही मानी जाती हैं। अत: श्रावक को मुक्ति न मिलने तक देवगति और मनुष्यगति में अभ्युदय और कल्याण की सतत परम्परा को बनाए रखने हेतु जिनभवन का निर्माण करवाना चाहिये, क्योंकि अन्ततः उससे मोक्ष मिलता है। जिनभवन में जिनबिम्बप्रतिष्ठा के भाव से उपार्जित पुण्यानुबन्धी पुण्य के फल से जीव को सदा देवलोक आदि सुगति की ही प्राप्ति होती है, अर्थात् जब तक मोक्ष न मिले तब तक वह देवलोक या मनुष्यलोक में ही उत्पन्न होता है। जिनभवन के निमित्त साधुओं का आगमन हो तो स्वाभाविक रूप में गुणानुराग होता है और नये-नये गुणों का प्रकटन होता है । जिनभवन से दूसरे लोग भी प्रतिबोध को प्राप्त करते हैं। जो धन जिनमन्दिर में लग रहा है वही मेरा है, ऐसे शुभभाव से उपार्जित शुभकर्म के विपाक से जीव स्वीकृत चारित्र का अन्त तक निर्वाह करता है । मृत्युपर्यन्त विधिपूर्वक संयम का पालन करना निश्चयनय से चारित्राराधना है। इसकी आराधना करने वाले जीव सात या आठ भवों से जन्म-मरणादि से मुक्त होकर शाश्वत सुखवाले मोक्षपद को प्राप्त करते हैं। अष्टम पञ्चाशक हरिभद्र ने आठवें पञ्चाशक में 'जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि' का वर्णन किया है। यह विधि दो भागों में विभक्त है - (१) जिनबिम्ब-निर्माण की विधि तथा (२) जिनबिम्ब-प्रतिष्ठाविधि । भगवान् जिन के वीतरागता, तीर्थप्रवर्तन आदि गुणों को गुरु के द्वारा सुनने और जानने के पश्चात् व्यक्ति यह सोचता है कि भगवान् जिनेन्द्रदेव अतिशय गुण सम्पन्न होते हैं, उनके बिम्ब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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