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भूमिका
नहीं समझ लेना चाहिये कि द्रव्य का प्रयोग एकमात्र योग्यता के ही अर्थ में होता है, कभी-कभी उसका प्रयोग अयोग्यता के अर्थ में भी देखा जाता है, जैसे अंगारमर्दक आचार्य मुक्ति की योग्यता से रहित होने के कारण जीवनभर द्रव्याचार्य ही रहे । फलतः द्रव्यस्तव भी दो प्रकार का होता है प्रधान और अप्रधान । जो भावस्तव का हेतु है वह प्रधान द्रव्यस्तव है और जो भावस्तव का हेतु बनने की योग्यता नहीं रखता है, वह अप्रधान द्रव्यस्तव है । फिर भी हरिभद्र यह मानते हैं कि अप्रधान द्रव्यस्तव से भी अल्पकाल की प्राप्ति होती है, क्योंकि वीतराग भगवान् विषयक कोई भी अनुष्ठान चाहे वह जिनाज्ञा के अनुरूप न हो तो भी सर्वथा निष्फल नहीं जाता है । वह भी मनोज्ञ फल देता है, चाहे वह अल्प ही क्यों न हो। क्योंकि जो फल दूसरे कारणों से मिलता हो वही फल वीतराग सम्बन्धी अनुष्ठान से मिले तो फिर वीतराग सम्बन्धी अनुष्ठान की विशेषता ही क्या रह जायेगी ?
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यहाँ यह प्रश्न भी उठ सकता है कि 'यदि भावस्तव का कारण नहीं बनने वाले अनुष्ठान द्रव्यस्तव हैं', यह बात मान ली जाती है तो फिर भावस्तव का कारण बनने वाले जिनभवन-निर्माण आदि अनुष्ठानों को भावस्तव क्यों नहीं माना जाता ? ये अनुष्ठान भी आप्तकथित होने के कारण साधुओं की ग्लान- - सेवा, स्वाध्याय आदि कार्यों के समान होते हैं और साधुओं के उपर्युक्त कार्य आगम में भावस्तव कहे जाते हैं । इसके उत्तर में हरिभद्र कहते हैं कि साधुओं के उपर्युक्त कार्यों से होने वाले शुभ अध्यवसाय की अपेक्षा जिनभवन-निर्माण आदि अनुष्ठानों से होने वाले शुभ अध्यवसाय कम होते हैं, क्योंकि उनमें आंशिक रूप से आरम्भ भी होता है । इसलिये वे द्रव्यस्तव ही हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि साधुओं का कार्य आसक्ति आदि कलुषित भावों एवं हिंसा आदि पापकर्मों से सर्वथा रहित तथा आगम में प्रणीत महाव्रतादि में प्रवृत्तिरूप होने से सर्वथा शुद्ध ही होता है । इसलिये साधु का क्रिया- व्यापार सर्वथा निर्दोष माना जाता है, जबकि परिग्रह और आरम्भ से युक्त गृहस्थों का क्रिया- व्यापार अल्पशुद्ध होता है । इसलिए वह द्रव्यस्तव ही है ।
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द्रव्यस्तव बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा रखने वाला होने के कारण कड़वी ओषधि के समान दीर्घकालीन भवरोग को उपशमित करने वाला है, जबकि भावस्तव ओषधि के बिना ही पथ्य मात्र से उस भवरोग को निर्मूल करने में सक्षम है । द्रव्यस्तव से पुण्यानुबन्धी पुण्यकर्म का बन्ध होता है, उसके उदय से सुगति आदि मिलती है और परम्परा से थोड़े समय के बाद भावस्तव का योग भी मिलता है । द्रव्यस्तव और भावस्तव में यह भेद होते
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