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________________ Ixxiv भूमिका सेवा करना, उनके लिए कल्प्य आहार लाना आदि कार्य करने चाहिये। ठीक इसी प्रकार श्रावकों को भी यथा सामर्थ्य दान देना चाहिये। यदि सामर्थ्य न हो तो दान देने वाले श्रद्धालुओं के घर बताना व बिना भेदभाव के सभी को समान रूप में दान देना चाहिये। ७. अनुबन्ध द्वार - मानसिक और शारीरिक उदासीनता से रहित होकर जो उचित प्रयत्न करता है, उसके प्रत्याख्यान में अनुबन्ध का भाव होता है। गुरु की आज्ञा के अनुरूप कार्यों से अलग कार्य करने पर भी प्रत्याख्यान होता है । गुरु द्वारा कहा गया कार्य ही प्रमुख होता है। .. जो वस्तु व्यक्ति के पास नहीं है उसका प्रत्याख्यान भी लाभप्रद ही होता है, क्योंकि ऐसा नहीं होता है कि जो वस्तु वर्तमान में नहीं है वह भविष्य में भी प्राप्त नहीं होगी। अत: इस बात को ध्यान में रखकर ही प्रत्याख्यान करना चाहिये । भवविरह की इच्छा वाले जीव का विद्यमान या अविद्यमान सम्बन्धी सभी वस्तुओं का प्रत्याख्यान सफल होता है, क्योंकि वह मोक्ष की अभिलाषा से उन सबका प्रत्याख्यान करता है। षष्ठ पञ्चाशक षष्ठ पञ्चाशक में हरिभद्र ने स्तुति या 'स्तवनविधि' का वर्णन किया है। द्रव्य और भाव की दृष्टि से स्तवन भी दो प्रकार का होता है। शास्त्रोक्तविधिपूर्वक जिनमन्दिर का निर्माण, जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, तीर्थों की यात्रा, जिनप्रतिमाओं की पूजा करना आदि द्रव्यस्तव हैं तथा मन, वचन और कर्म से विरक्त भाव या वीतरागता की उपासना करना भावस्तव है। द्रव्यस्तव भावस्तव का निमित्त कारण माना जाता है, जिनमन्दिर का निर्माण एवं जिनेन्द्रदेव की पूजा आदि से भाव-विशुद्धि होती है, फलत: वे भावस्तव के निमित्त कारण हैं। द्रव्यस्तव न केवल भावस्तव का निमित्त कारण है, बल्कि आप्तवचनों के पालन और उनके प्रति आदर भावरूप होने से भावस्तव भी है। औचित्यरहित आदरभाव से सर्वथा शून्यं अनुष्ठान भले ही वह जिनेन्द्रदेव से सम्बन्धित क्यों न हो, द्रव्यस्तव भी नहीं कहे जा सकते हैं, क्योंकि आस्था शून्य अनुष्ठानों का कोई मूल्य नहीं होता है। यदि आप्तवचन के विपरीत अनुष्ठानों को द्रव्यस्तव की संज्ञा दी जाती है तो आप्तवचन के विपरीत हिंसादि क्रियाएँ सभी द्रव्यस्तव के अन्तर्गत आ जाएँगी। अत: जो अनुष्ठान भावस्तव का कारण न बने वह अनुष्ठान द्रव्यस्तव नहीं है, क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि जिसमें भावरूप में परिणित होने की योग्यता हो उसे 'द्रव्य' शब्द से सम्बोधित किया जाता है। जैसे मिट्टी का पिण्ड द्रव्य है, क्योंकि उसमें घट बनने की योग्यता है, किन्तु इसका यह अर्थ भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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