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तपोविधि पञ्चाशक
संवत्सरेण भिक्षा लब्धा ऋषभेण लोकनाथेन ।
शेषैः द्वितीयदिवसे लब्धा: प्रथम भिक्षाः ॥ ११ ॥
लोकनाथ श्री ऋषभदेव को पहली भिक्षा एक वर्ष में मिली । अन्य तीर्थङ्करों को दीक्षा ग्रहण करने के दूसरे दिन पहली भिक्षा मिली ।। ११ ।। तीर्थङ्कर ज्ञानोत्पत्ति नामक तप का विवेचन तित्थंकर - णाणुप्पत्ति-सण्णिओ तह वरो तवो होइ ।
पुव्वोइएण विहिणा कायव्वो सो पुण इमोति ॥ १२ ॥ अट्ठमभत्तंतम्मि य पासोसहमल्लिरिट्ठनेमीणं ।
वसुपुज्जस्स चउत्थेण छट्टभत्तेण साणं ॥ १३ ॥ उसभाइयाणमेत्थं जायाइं केवलाइँ गाणा | एयं कुणमाणो खलु अचिरेणं केवलमुवे ।। १४ । तीर्थङ्करज्ञानोत्पत्तिसंज्ञिकः तथा वरं तपो भवति । पूर्वोदितेन विधिना कर्तव्यं तत्पुनर् इदमिति ।। १२ ।। अष्टमभक्तान्ते च पार्श्वर्षभ-मल्लिरिष्ठनेमीनाम् । वासुपूज्यस्य चतुर्थेन षष्ठभक्तेन शेषाणाम् ।। १३ ।। ऋषभादिकानामत्र जातानि केवलानि ज्ञानानि । एतत्कुर्वाणः खलु अचिरेण केवलमुपैति ।। १४ । तीर्थङ्करकेवलज्ञानोत्पत्ति नामक तप भी श्रेष्ठ होता है । पूर्वकथित विधि से इसे करना चाहिए । ऋषभादि जिनों के क्रम से गुरु की और विशुद्ध आज्ञानुसार अनुष्ठान पूर्वक यह तप करना चाहिए । मतान्तर से जिस महीने और तिथि को केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई थी, उस महीने और उसी तिथि को यह तप करना चाहिए ।। १२ ।।
एकोनविंश ]
यह तप निम्नवत् है पार्श्वनाथ, ऋषभदेव, मल्लिनाथ और नेमिनाथ इन चार जिनों को अट्ठम (तेले) के अन्त में, श्री वासुपूज्य को उपवास में और बाकी जिनों को छट्ठ (बेले) के तप में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ।। १३ ।। ऋषभादि तीर्थङ्करों को इस तप में ही केवलज्ञान हुआ था। इसलिए यह तप करने वाला जल्दी केवलज्ञान प्राप्त करता है ॥ १४ ॥
जिनों के मोक्षगमन तप का वर्णन
तित्थयरमोक्खगमणं अहावरो एत्थ होइ विण्णेओ ।
जेण परिनिव्वुया ते महाणुभावा तओ य
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इमो ।। १५ ।।
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