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पञ्चाशकप्रकरणम्
[एकोनविंश
सात्त्विक जीवों को उत्सर्ग (सामान्य रूप) से शक्ति हो तो ऋषभादि जिनों के क्रम से यह तप करना चाहिए। शक्ति न हो तो क्रम के बिना करने में भी दोष नहीं है। यह तप गुरु की आज्ञा से परिशुद्ध होकर और अनवद्य अनुष्ठान से (हिंसा से दूर रहते हुए) करना चाहिए ।। ८ ।।
उक्त तपविषयक मतान्तर अण्णे तम्मासदिणेसु बेति लिंगं इमस्स भावंमि । तप्पारणसंपत्ती तं पुण इम' इमेसिं तु ।। ९ ।। अन्ये तन्मासदिनेषु ब्रुवते लिङ्गमस्य भावे । तत्पारणसम्पत्तिः तत्पुनर् एतदेतेषान्तु ।। ९ ।।
दूसरे आचार्य कहते हैं कि ऋषभादि जिनों के दीक्षा तप के जो महीने और तिथियाँ हैं, उन महीनों और उन तिथियों में यह तप करना चाहिए । जैसे - ऋषभदेव के दीक्षातप में चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन छठ तप करना चाहिए। महावीर स्वामी के दीक्षा तप में मार्गशीर्ष (अगहन) कृष्णा दशमी के दिन ही छठ तप करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य तीर्थङ्करों के दीक्षातप के लिए समझना चाहिए। पारणा में ऋषभादि जिनों ने जिस द्रव्य से पारणा किया था, उसी द्रव्य की प्राप्ति होना तप के अच्छी तरह पूर्ण होने का लक्षण है ।। ९ ।।
ऋषभादि तीर्थङ्करों के पारणा के द्रव्य निम्नवत् हैं - उसभस्स उ इक्खुरसो पारणए आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोवमं आसी ।। १० ।। ऋषभस्य तु इक्षुरस: पारणके आसीत् लोकनाथस्य । शेषाणां
परमानममृतरस-रसोपममासीत् ।। १० ।। लोकनाथ श्री ऋषभदेव के पारणे में ईख का रस था और बाकी के तीर्थङ्करों के पारणे में अमृतरस जैसी स्वादिष्ट खीर थी ।। १० ।।
उन तीर्थङ्करों को पहली भिक्षा कितने समय में मिली ? संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसभेण लोगनाहेण । सेसेहिं बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ ११ ।।
१. 'एयं' इति पाठान्तरम् । २. 'लद्धाउ' इति पाठान्तरम् ।
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