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अष्टादश ] भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पञ्चाशक
३२९ अतोऽतीव ज्ञेया सुश्लिष्टा धर्मकायपीडापि। आन्त्यादिनः सकामा तथा तस्य अदीनचित्तस्य ।। ३९ ।। न खलु पतति तस्य भाव: संयमस्थानादपि च वर्द्धयति । न च कायपाततोऽपि खलु तदभावे कोऽपि दोष इति ।। ४० ।। चित्राणां कर्मणां चित्र एव भवति क्षपणोपायोऽपि। अनुबन्धछेदनादेः सः पुनः एवमिति ज्ञातव्यः ।। ४१ ।।
अन्य विकृत अवस्थाओं के जनक अशुभकर्म का क्षय प्रतिमाकल्प से होता है, इसलिए अन्त-प्रान्त भोजन (अवशिष्ट नीरस भोजन) करने वाले प्रतिमाधारी की काया की पीड़ा भी निरर्थक नहीं है, क्योंकि वह पीड़ा भी प्रयोजनपूर्ण और मानसिक दीनता से रहित होती है ।। ३९ ।।।
दीन-भाव न होने का कारण - कायिकपीड़ा होने पर भी प्रतिमाधारी के मनोभाव संयमस्थान (चारित्रिकशुद्धि) से पतित नहीं होते हैं, अपितु वृद्धिंगत ही होते हैं। मनोवृत्तियों के पतित न होने से देहपात होने पर भी किसी तरह का दोष नहीं लगता है ।। ४० ॥
क्लिष्ट, क्लिष्टतर और क्लिष्टतम - ऐसे विचित्र प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों के नाश के उपाय भी स्थविरकल्प, प्रतिमाकल्प आदि विचित्र ही होते हैं और वे उपाय कायिकपीड़ा को सहन करने रूप प्रतिमाकल्प आदि ही हैं, इसलिए साधना के क्षेत्र में देह-दण्ड सुसंगत है - ऐसा जानना चाहिए ।। ४१ ।।
प्रतिमाकल्प से विचित्र कर्मों का नाश होता है - इसे कैसे जानें ?
इसका समाधान इहरा उ णाभिहाणं जुज्जइ सुत्तंमि हंदि एयस्स । एयंमि अवसरम्मी एसा खलु तंतजुत्तित्ति ।। ४२ ।। इतरथा तु नाभिधानं युज्यते सूत्रे हंदि एतस्य । एतस्मिन्नवसर एषा खलु तन्त्रयुक्तिरिति ।। ४२ ।।
यदि प्रतिमाकल्प के बिना ही विचित्रकर्मों का क्षय होता हो तो आगम का यह कथन कि स्थविरकल्प के कर्तव्यों के पूर्ण होने के बाद प्रतिमाकल्प को स्वीकार करना चाहिए, असंगत हो जायेगा। इस आगमिककथन से प्रतिमाकल्प की आवश्यकता सिद्ध होती है। स्थविरकल्प के अनुष्ठान पूर्ण होने पर प्रतिमाकल्प को स्वीकार करना - यह आप्तवचन है, इसलिए प्रतिमाकल्प कर्मक्षय का कारण है - ऐसा जानना चाहिए ।। ४२ ।।
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