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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ अष्टादश
तं चावत्यंतरमिह जायइ तह संकिलिट्ठकम्माओ । पत्थुयनिवाहिदट्ठाइ जह तहा सम्ममवसेयं ।। ३७ ।। तच्चावस्थान्तरमिह जायते तथा संक्लिष्टकर्मणः । प्रस्तुतनृपादिदष्टादि यथा तथा सम्यगवसेयम् ।। ३७ ।।
जिस प्रकार लूता रोग ग्रस्त राजा की सर्पदंश आदि के कारण अन्य विकृत अवस्थाएँ होती हैं, उसी प्रकार प्रव्रजित साधु की अशुभकर्मों के उदय से अन्य विकृत अवस्थाएँ होती हैं, जो प्रतिमाकल्प रूप विशिष्ट चिकित्सा से ही ठीक होती हैं – इसे भलीभाँति जानना चाहिए ।। ३७ ।। अन्य अवस्थाजन्य कर्म विकृति को प्रतिमाकल्प से ही हटाया जा सकता है
अहिगयसुंदरभावस्स विग्घजणगंति संकिलिटुं च । तह चेव तं खविज्जइ एत्तो च्चिय गम्मए एयं ॥ ३८ ॥ अधिगतसुन्दरभावस्य विघ्नजनकमिति संक्लिष्टं च । तथा चैव तत्क्षप्यते इत एव गम्यते एतत् ।। ३८ ॥
अन्य विकृतियों या उनके जनक कर्म सामान्य प्रव्रज्या में विघ्नकारक और संक्लिष्ट हैं। इसलिये प्रतिमाकल्प रूप शुभभाव को स्वीकार करने से ही उन अशुभ कर्मों को दूर किया जा सकता है।
प्रश्न : कर्मजन्य विकृतियों को प्रतिमाकल्प से दूर किया जा सकता है – इसे कैसे जानें ?
उत्तर : इसे आप्तवचन से जाना जा सकता है, क्योंकि आप्तवचन कभी अन्यथा नहीं होते हैं ।। ३८ ।।
अब २३वीं गाथा में कथित 'हल्का भोजन लाभकारी है।
का समाधान करते हैं। एत्तो अईव णेया सुसिलिट्ठा धम्मकायपीडावि।
आंताइणो सकामा तह तस्स अदीणचित्तस्स ।। ३९ ।। न हु पडइ तस्स भावो संजमठाणाउ अवि य वड्डेइ । ण य कायपायओऽवि हु तयभावे कोइ दोसोत्ति ।। ४० ।। चित्ताणं कम्माणं चित्तो च्चिय होइ खवणुवाओ वि। अणुबंधछेयणाई सो उण एवंति णायव्वो।। ४१ ॥
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