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________________ xlii भूमिका भी संघ कहता है उसे भी छेद-प्रायश्चित्त होता है। हरिभद्र पुनः कहते हैंजिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं अधिक श्रेयस्कर है। हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके मन में कितना विद्रोह एवं आक्रोश है। वे तत्कालीन जैन-संघ को स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत करो, अन्यथा धर्म का यथार्थ स्वरूप ही धूमिल हो जाएगा । वे कहते हैं कि यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाय तो नीम का कुछ नहीं बिगड़ेगा, किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा। वस्तुतः हरिभद्र की यह क्रान्तदर्शिता यथार्थ ही है, क्योंकि दुराचारियों के सान्निध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है। वे स्वयं कहते हैं, जो जिसकी मित्रता करता है, तत्काल वैसा हो जाता है। तिल जिस फूल में डाल दिये जाते हैं उसी की गन्ध के हो जाते हैं। हरिभद्र इस माध्यम से समाज को उन लोगों से सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का नकाब डाले अधर्म में जीते हैं, क्योंकि ऐसे लोग दुराचारियों की अपेक्षा भी समाज के लिये अधिक खतरनाक हैं। आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं – जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध है, उसी प्रकार सुश्रावक के लिये हीनाचारी यति का सान्निध्य निषिद्ध है। दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का सान्निध्य या १. सुहसीलाओ सच्छंदचारिणो वेरिणो सिवपहस्स । आणाभट्टाओ बहुजणाओ मा भणह संवुत्ति ।। देवाइ दव्वभक्खणतप्परा तह उमग्गपक्खकरा । साहु जणाणपओसं कारिणं माभणह संघं ।। जहम्म अनीई अणायार सेविणो धम्मनीइं पडिकूला । साहुपभिइ चउरो वि बहुया अवि मा भणह संघं ।। असंघं संघ जे भणति रागेण अहव दोसेण । छेओ वा मुहुत्तं पच्छित्तं जायए तेसिं ।। – सम्बोधप्रकरण, १/११९-१२१, १२३ २. गब्भपवेसो वि वरं भद्दवरो नरयवास पासो वि । मा जिण आणा लोवकरे वसणं नाम संघे वि ।। वही, २/१३२ ३. वही, २/१०३ ४. वही, २/१०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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