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________________ भूमिका विक्रेता हैं । ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले द्रव्य संग्राहक, उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्वपरायण न तो मुनि कहे जा सकते हैं और न आचार्य ही हैं। ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत शरीर को मात्र कष्ट और कर्मबन्धन होता है । वस्तुतः जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हुई माला को कोई भी धारण नहीं करता है, वैसे ही ये भी अपूज्य हैं। हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को फटकारते हुए कहते हैं यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ वेश क्यों नहीं धारण कर लेते हो ? अरे, गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, किन्तु मुनि - वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे । यह उन जैसे साहसी आचार्य का कार्य हो सकता है जो अपने सहवर्गियों को इतने स्पष्ट रूप में कुछ कह सके। जैसा कि मैंने पूर्व पृष्ठों में चर्चा की है, हरिभद्र तो इतने उदार हैं कि वे अपनी विरोधी दर्शन - परम्परा के आचार्यों को भी महामुनि, सुवैद्य जैसे उत्तम विशेषणों से सम्बोधित करते हैं, किन्तु वे उतने ही कठोर होना भी जानते हैं, विशेष रूप से उनके प्रति जो धार्मिकता का आवरण डालकर भी अधार्मिक हैं। ऐसे लोगों के प्रति यह क्रान्तिकारी आचार्य कहता है ऐसे दुश्शील, साधु-पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार करता है, क्या वह महापाप नहीं है ?" अरे इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी मोक्ष - मार्ग के बैरी, आज्ञाभ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो । अरे, देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो । अरे इन अधर्म और अनीति के पोषक, अनाचार का सेवन करने वाले और साधुता के चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे (दुराचारियों के समूह) को राग या द्वेष के वशीभूत होकर १. सम्बोधप्रकरण, २/३४-३६, ४२, ४६, ४९-५०, ५२, ५६-७४८८- ९२ २. वही, २/२० ३. जह असुइ ठाणंपडिया चंपकमाला न कीरते सीसे । पासथा ठाणे ४. जइ चरिउं नो सक्को सुद्धं जइलिंग तो गिहिलिंग गिण्हे नो लिंगी वट्टमाणा इह अपुज्जा । वही, २/२२ Jain Education International xli महवपूयट्ठी । पूयणारहिओ ।। वही, १/२७५ ५. एयारिसाण दुस्सीलयाण साहुपिसायाण मत्ति पूव्वं । जे वंदनमंसाइ कुव्वंति न महापावा ? वही, १ / ११४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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