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पञ्चाशकप्रकरणम्
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[अष्टादश
लाभकारी है और गच्छवास कम लाभकारी ( लघु ) है। जिसने स्थविरकल्प के सभी अनुष्ठान पूरे नहीं किये हैं, उसके लिए स्थविरकल्प ही अधिक लाभकारी है। इसलिए प्रतिमाकल्प स्वीकार करते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की अपेक्षा से गुरुलाघव की विचारणा उचित है ।। २६ ।।
दृष्टान्त णिवकरलूयाकिरिया- जयणाए हंदि जुत्तरूवाए । अहिदट्ठाइसु छेयाइ वज्जयंतीह तह सेसं ॥ २७ ॥ . एवं चिय कल्लाणं जायइ एयस्स इहरहा ण भवे । सव्वत्थावत्थोचियमिह कुसलं होइऽणुट्ठाणं ।। २८ ।। नृपकरलूताक्रियायतनायां हंदि युक्तरूपायाम् । अहिदष्टादिषु छेदादि वर्जयन्तीह तथा शेषाम् ।। २७ ।। एवमेव कल्याणं जायत एतस्य इतरथा न भवेत् । सर्वत्रावस्थोचितमिह कुशलं भवति अनुष्ठानम् ।। २८ ।।
जैसे राजा के हाथ में वायुजनित लूता नामक रोग को मन्त्र आदि से दूर करने का उचित प्रयत्न किया जा रहा हो, ऐसे समय में राजा को साँप आदि डॅस ले या अन्य रोग हो जाये जिससे वह लूता रोग की चिकित्सा न कर सके तो वैद्य अनर्थ को दूर करने के लिए सर्पदंश की जगह को काटने व सेंकने की क्रिया करके चिकित्सा करते हैं और चल रही लूता रोग की चिकित्सा बन्द कर देते
क्योंकि वैसा करने से ही राजा का कल्याण होगा और सर्पदंश से राजा की मृत्युरूप अनर्थ नहीं होगा। इस लोक में सर्वत्र परिस्थिति के अनुरूप कार्य ही कल्याण का कारण बनता है। इसलिए सर्पदंश की स्थिति में काटना आदि क्रियाएँ ही कल्याण का कारण बनती हैं, लूता रोग निवारण की क्रिया नहीं ।। २८ ॥
उक्त दृष्टान्त का घटन। इय कम्मवाहिकिरियं पव्वज्जं भावओ पवण्णस्स । सइ कुणमाणस्स तहा एयमवत्थंतरं णेयं ।। २९ ।। इति कर्मव्याधिक्रियां प्रव्रज्यां भावतः प्रपन्नस्य । सकृत् कुर्वाणस्य तथा एतदवस्थान्तरं ज्ञेयम् ॥ २९ ।।
उसी प्रकार कर्मरोग की प्रव्रज्यारूप चिकित्सा को भाव से स्वीकार करने वाले और स्थविरकल्प के अनुरूप उसका पालन करने वाले साधु के लिए
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