SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टादश] भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पञ्चाशक ३२३ शिष्यपरम्परा - शिष्य-प्रशिष्यादि का वंश चलता है ।। २२ ॥ इस प्रकार गच्छनिर्गमन (गच्छ से बाहर जाकर तप करना) लाभकारी नहीं है, वैसे ही एकदत्ति (एक बार में जितना दान दिया जाये उतना लेकर रहना) आदि अभिग्रह भी विशेष लाभकारी नहीं है, क्योंकि इससे स्वाध्याय-ध्यान आदि निरन्तर नहीं हो पाते हैं। स्वाध्याय आदि गच्छ में निष्कण्टक होते हैं, क्योकि अनेक दत्ति लेने से शरीर स्वस्थ रहता है। वल्ल (एक प्रकार का दलहन), चना आदि का हल्का भोजन भी लाभकारी नहीं है, क्योंकि उससे धर्मसाधन रूप शरीर संरक्षण नहीं हो पाता है। धर्मसाधन रूप शरीर का संरक्षण न हो, यह योग्य नहीं है ।। २३ ।। ___इस प्रकार सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर प्रतिमाकल्प उसी प्रकार विशिष्ट लाभ का हेतु नहीं है, जैसे पञ्चाग्नि तप आदि परमार्थरहित होने के कारण विशिष्ट लाभदायी नहीं होते हैं ।। २४ ।। समाधान भण्णइ विसेसविसओ एसो ण उ ओहओ मुणेयव्वो । दसपुव्वधराईणं जम्हा एयस्स पडिसेहो ।। २५ ।। पत्थुयरोगचिगिच्छावत्थंतर - तव्विसेस - समतुल्लो । तह गुरुलाघवचिंतासहिओ तक्कालवेक्खाए ।। २६ ।। भण्यते विशेषविषय एषो न तु ओघतो ज्ञातव्यः । दशपूर्वधरादीनां यस्मादेतस्य प्रतिषेधः ।। २५ ।। प्रस्तुतरोगचिकित्सावस्थान्तर - तद्विशेषसमतुल्यः । तथा गुरुलाघवचिन्तासहितः तत्कालापेक्षया ।। २६ ॥ यहाँ पूर्वोक्त बातों का समाधान किया जा रहा है - यह प्रतिमाकल्प सर्वसाधारण साधुओं के लिए नहीं है, यह विशेष साधुओं के लिए ही है - ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि दशपूर्वधर आदि के लिए यह प्रतिमाकल्प वर्जित है। दशपूर्वधर आदि गच्छ में रहकर ही उपकारक होते हैं। इसलिए प्रतिमाकल्प में गुरुलाघव आदि की विचारणा नहीं हुई है - यह कहना अनुचित है ।। २५ ।। प्रतिमाकल्प प्रस्तुत रोग की चिकित्सा करते समय उत्पन्न उससे अधिक तीव्र रोग की चिकित्सा करने के समान है, जैसे किसी पुरुष के एक रोग की चिकित्सा हो रही हो, उसमें उस रोग से भी अधिक कष्टकारी दूसरा रोग उत्पन्न हो जाये तो पहले उसकी चिकित्सा करनी चाहिए। उसी प्रकार जिसने स्थविरकल्प के सभी अनुष्ठान कर लिए हैं, उसके लिए ही प्रतिमाकल्प को स्वीकार करना अधिक उपयोगी है। ऐसे साधु के लिए प्रतिमाकल्प स्वीकार करना अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy