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अष्टादश ]
भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पञ्चाशक
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विधि है, लेकिन क्रमश: एक-एक दत्ति की वृद्धि होती है। दूसरी प्रतिमा में दो, तीसरी प्रतिमा में तीन - इस क्रम से सातवीं प्रतिमा में सात दत्ति होती हैं ॥ १३ ॥ आठवीं प्रतिमा का स्वरूप
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तत्तो य अट्ठमी खलु हवइ इहं पढमसत्तराइंदी | तएँ चउत्थचउत्थेणऽपाणएण अह विसेो ॥ १४ ॥ उत्ताणग पासल्ली णेसज्जी वावि ठाणगं ठाउं । सहउवसग्गे घोरे दिव्वाई तत्थ अविकंप ।। १५ । ततश्च अष्टमी खलु भवति इह प्रथमसप्तरात्रंदिवा । तस्यां चतुर्थचतुर्थेनापानकेन अथ विशेषः ।। १४ । उक्तानकः पार्श्वशयितः निषद्यावान् वापि स्थानकं स्थित्वा । सहते उपसर्गान् घोरान् दिव्यादीन् तत्र अविकम्पः ।। १५ ।। तत्पश्चात् पहली सप्त दिवसीय आठवीं प्रतिमा धारण करे। उसमें पूर्वोक्त सात प्रतिमाओं से निम्नलिखित भिन्नताएँ हैं
१. एकान्तर से चौविहार उपवास करे ।
२. पारणे में आयम्बिल करे ।
३. दत्ति का नियम नहीं है।
४. गाँव के बाहर उत्तान सोवे, करवट लेकर सोवे अथवा पालथी (पद्मासन) लगा कर बैठे इन तीन स्थितियों में से किसी में भी रहकर देव, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि के उपसर्गों को मानसिक और शारीरिक विचलन से रहित होकर सहन करे ।। १४-१५ ।।
नौवीं प्रतिमा का स्वरूप
दोच्चावि एरिसच्चिय बहिया गामाइयाण णवरं उक्कुडल' गंडसाई दंडाययओ व्व द्वितीयापि ईदृश्येव बहिर्ग्रामादीनां केवलं उक्कटुकलगण्डशायी दण्डायतक इव
तु ।
ठाऊणं ।। १६ ।
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दूसरी सप्तदिवसीय प्रतिमा भी पहली सप्तदिवसीय प्रतिमा जैसी ही है, क्योंकि इसमें भी तप, पारणा और गाँव के बाहर रहने की विधि एक ही समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि साधु उत्कटुक आसन से (घुटना जमीन को स्पर्श न करते हुए) बैठे। टेढ़ी लकड़ी के समान सोये अर्थात् जमीन को केवल सिर और पैर का स्पर्श हो अथवा जमीन को केवल पीठ स्पर्श करे और मस्तक या
१. 'उक्कडल... ' इति पाठान्तरम् ।
तु ।
स्थित्वा ॥ १६ ॥
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