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________________ ३१६ पुढवीकट्ठजहऽत्थिण्णसारसाई ण अग्गणो बीहे । कट्ठाइ पायलग्गं णऽवणेइ तहऽच्छिकणुगं वा ॥ १० ॥ जत्थऽत्थमेइ सूरो न तओ ठाणा पयपि संचरइ । पायाई ण पखालइ एसो विडोदगेणावि ॥ ११ ॥ दुस्सहत्थिमाई तओ भएणं पयंपि णोसरई । एमाइणियमसेवी विहरइ जाऽखंडिओ मासो ॥ १२ ॥ महाप्रतिमाम् । गच्छाद् विनिष्क्रम्य प्रतिपद्यते मासिकीं दत्त्येका भोजनस्य पानस्यापि एकं आदिमध्यावसाने ज्ञातैकरात्रवासी एकं च द्विकं च अज्ञाते ।। ८ ।। यावन्मासम् ॥ ७ ॥ ज्ञेयः । षड्गोचरहिंडकोऽयं पृच्छा - अनुज्ञापन प्रश्नव्याकरण - भाषकश्चैव । याचन आगमन पृथ्वीकाष्ठ - यथास्तीर्ण-सारशायी न अग्नेर्बभेति । काष्ठादि पादलग्नं नापनयति तथाऽक्षिकणुकं वा ।। १० । यत्रास्तमेति सूरो न ततः स्थानात् पदमपि संचरति । पादादि न प्रक्षालयति एषो विकृतोदकेनापि ।। ११ ।। दुष्टाश्वहस्त्यादेः तको भयेन पदमपि नापसरति । एवमादिनियमसेवी विहरति यावदखण्डितो मासः ।। १२ ॥ उपर्युक्त साधु गच्छ से निकलकर मासिकी महाप्रतिमा को स्वीकार करता है। इसकी विधि इस प्रकार है। प्रतिमा स्वीकार करने वाला यदि आचार्य है तो दूसरे साधु को आचार्य पद पर बैठाकर शरद् ऋतु में शुभ योग होने पर मासिकी प्रतिमा को स्वीकार करे तथा गच्छ से निकलते समय सभी साधुओं को बुलाकर क्षमापना करे। - पञ्चाशकप्रकरणम् - -- - Jain Education International — अष्टादश विवृतगृह-वृक्षमूलकावासकत्रिक मासिकी प्रतिमा के नियम (अभिग्रह ) १. मास पर्यन्त भोजन की एक ही दत्ति' लेनी चाहिए। एक समय में धार टूटे बिना पात्र में जितना पड़े वह एक दत्ति है। २. एक महीना तक पानी की भी एक दत्ति ही लेनी चाहिए। ३. भिक्षा ऐसी जगह से लें जहाँ किसी को यह पता न हो कि भिक्षा लेने १. 'दत्ति' अविच्छिन्न रूप से जितनी भिक्षा दी जाये वह । द्रष्टव्य प्राकृत - हिन्दी कोश | इति ।। ९ ।। For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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