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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ त्रयोदश
करके आहार की याचना करना वनीपक दोष है।
६. चिकित्सा - रोग के निवारण द्वारा गृहस्थ को प्रसन्न करके आहार प्राप्त करना चिकित्सा दोष है। यह दो प्रकार का होता है - सूक्ष्म और बादर। रोग की दवा बतलाना या वैद्य को बतलाना सूक्ष्म चिकित्सा दोष है और स्वयं दवा करना बादर चिकित्सा दोष है।
७. क्रोधपिण्ड - भिक्षा नहीं देने पर ये साधु क्रोध करेंगे, इस भय से दिया गया आहार क्रोधपिंड है।
८. मानपिण्ड - परिवारजनों की अवमानना करके साधु के माँगने पर आहार देना और इसके लिए स्वाभिमान का अनुभव करना मानपिण्ड है। इस विषय में सेवतिका का उदाहरण है।
९. मायापिण्ड- वेशपरिवर्तन आदि से गृहस्थ को धोखा देकर उससे आहार लेना मायापिण्ड है। इस विषय में आषाढ़भूति का दृष्टान्त है।
१०. लोभपिण्ड - आहार के लालच से अनेक घरों में जाकर आहार ग्रहण करना लोभपिण्ड दोष है। इसमें सिंहकेसरिया मुनि का दृष्टान्त है।
११. पूर्वपश्चात्संस्तव - आहार देने के पहले और बाद में दाता की प्रशंसा करना पूर्वपश्चात्संस्तव दोष है।
१२-१५. विद्या-मन्त्र-चूर्ण-योगप्रयोग - विद्या, मन्त्र, चूर्ण और योग का प्रयोग करके आहार प्राप्त करना क्रमश: विद्याप्रयोग, मन्त्रप्रयोग, चूर्णप्रयोग और योगप्रयोग दोष हैं।
१६. मूलकर्म – जिससे दीक्षापर्याय का मूल से छेद रूप आठवाँ प्रायश्चित आये, ऐसे गर्भपातादि व्यापार मूलकर्म दोष हैं। ये उत्पादन दोष साधु से उत्पन्न होते हैं । २०-२४ ।।
एषणा शब्द का अर्थ एवं पर्यायवाची शब्द एसण गवेसणऽण्णेसणा य गहणं च होति एगट्ठा । आहारस्सिह पगया तीइ य दोसा इमे होति ।। २५ ॥ एषणा गवेषणा अन्वेषणा च ग्रहणं च भवन्ति एकार्थाः । आहारस्येह प्रकृतास्तस्याश्च दोषा इमे भवन्ति ॥ २५ ॥
एषणा, गवेषणा, अन्वेषणा, ग्रहण - ये एकार्थक शब्द हैं, इनका अर्थ है ढूँढना। एषणा अनेक वस्तुओं की होती है, परन्तु यहाँ आहार की एषणा अभीष्ट है। एषणा के दोष इस प्रकार हैं ॥ २५ ॥
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