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उपासकप्रतिमाविधि पञ्चाशक
नौवीं प्रेष्यवर्जन प्रतिमा का स्वरूप
पेसेहिऽवि आरंभं सावज्जं कारवेइ णो अत्थी संतुट्ठो वा एसो पुण होति निक्खित्तभरो' पायं पुत्तादिसु अहव थेवममत्तो य तहा सव्वत्थवि परिणओ लोगव्ववहारविरओ बहुसो संवेगभावियमई पुव्वोदियगुणजुत्तो णव मासा जाव विहिणा प्रेष्यैरपि आरम्भं सावद्यं कारयति नो अर्थी सन्तुष्टो वा एषः पुन भवति निक्षिप्तभरः प्रायः पुत्रादिषु अथवा स्तोकममत्वश्च तथा सर्वत्रापि परिणतः लोकव्यवहारविरतो पूर्वोदितगुणयुक्तो नव मासान् यावद् विधिना तु ।। ३१ ।।
बहुश:
संवेगभावितमतिश्च ।
नौवीं प्रतिमा में श्रावक नौकरों से भी खेती आदि आरम्भ नहीं करवाता (बिस्तर लगवाने जैसे छोटे कार्यों का निषेध नहीं है ) । नौकरों या दूसरों से आरम्भ रूप कार्य न करवाने वाला व्यक्ति या तो धनवान् होता है या अतिशय सन्तोषी गरीब ।। २९ ।।
दशम ]
गुरुयं । विणेओ ।। २९ ।
सेसपरिवारे ।
१. मूले 'भरा' इति पाठः ।
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नवरं ।। ३० ।
य । उ ॥ ३१ ॥
गुरुकम् ।
विज्ञेयः ।। २९ ।।
शेषपरिवारे ।
केवलम् ।। ३० ।।
इस प्रतिमाधारी श्रावक पारिवारिक जिम्मेदारियों को योग्य पुत्रों अथवा पारिवारिकजनों या नौकरों पर छोड़ देता है। वह धनधान्यादि के प्रति हमेशा अल्प ममत्व रूप परिणाम वाला होता है ।। ३० ॥
वह अधिकांश लोकव्यवहार से निवृत्त होता है। निरन्तर भवभोगों से भयभीत बुद्धि वाला होता है। यह श्रावक पहले की सभी प्रतिमाओं से युक्त होता है और उत्कृष्टता से नौ महीने तक शास्त्रोक्त विधि से इस प्रतिमा का पालन करता है ।। ३१ ।।
दसवीं उद्दिष्टवर्जन प्रतिमा का स्वरूप उद्दिकडं भत्तंपि वज्जती सो होइ उ खुरमुंडो सिहलिं जं णिहियमत्थजायं पुट्ठो णियएहिं णवर सो जइ जाणइ तो साहे अह गवि तो बेइ णवि
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किमुय सेसमारंभं ? ।
वा धारती
१७३
कोई ॥ ३२ ॥
तत्थ ।
जाणे
३३ ॥
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