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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ नवम
दानं तप-उपधानं शरीरसत्कारं यथाशक्तिः । उचितं च गीतवादितं स्तुतिस्तोत्राणि प्रेक्षणादि च ।। ५ ।। .
जिनयात्रा महोत्सव में यथाशक्ति १. दान, २. तप, ३. शरीरशोभा, ४. उचित गीतवाद्य, ५. स्तुतिस्तोत्र, ६. प्रेक्षणक आदि (आदि पद से स्तवन, कथा, रथपरिभ्रमण आदि) करना चाहिए। यह द्वार-गाथा है। आगे इन द्वारों का क्रमश: विवेचन किया जा रहा है ।। ५ ।।
दानद्वार का विवरण दाणं अणुकंपाए दीणाणाहाण सत्तिओ णेयं । तित्थंकरणातेणं साहूण य पत्तबुद्धीए ॥ ६ ॥ दानमनुकम्पाया दीनानाथेभ्यः शक्तितो ज्ञेयम् । तीर्थङ्करज्ञातेन साधूनां च पात्रबुद्धया ।। ६ ।।
जिनयात्रा में दीनों, अनाथों को दयापूर्वक यथाशक्ति अन्नादि का दान करना चाहिए, क्योंकि तीर्थङ्करों ने भी अनुकम्पा दान किया है। वे ज्ञानादिगुणरूप-रत्नों के आगार हैं - ऐसी सुपात्र बुद्धि से उनको दान देना चाहिए ।। ६ ।।
तपद्वार का विवरण एकासणाई णियमा तवोवहाणंपि एत्थ कायव्वं । तत्तो भावविसुद्धी णियमा विहिसेवणा चेव ।। ७ ।। एकाशनादि नियमात् तप-उपधानमपि अत्र कर्तव्यम् । ततो भावविशुद्धिः नियमाद् विधिसेवना चैव ।। ७ ।।
जिनयात्रा में एकाशन, उपवास आदि तप भी अवश्य करना चाहिए। इससे भावविशुद्धि अवश्य होती है और धर्मार्थियों को भावविशुद्धि ही उपादेय है तथा जिनयात्रा में तप करने से विधि का पालन होता है ।। ७ ॥
शरीरभूषा द्वार का विवरण वत्थविलेवणमल्लादिएहिं विविहो सरीरसक्कारो । कायव्वो जहसत्तिं पवरो देविंदणाएण ।। ८ ।। वस्त्रविलेपनमाल्यादिभिः विविधः शरीरसत्कारः ।। कर्तव्यो यथाशक्ति प्रवरो देवेन्द्रज्ञातेन ।। ८ ।।
जिस प्रकार भगवान् के जन्मादि के समय देवेन्द्र सम्पूर्ण विभूतियों एवं आदर के साथ शरीर शोभा करते हैं, उसी प्रकार दूसरों को भी अपने सामर्थ्य के
hain का विवरण
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