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यात्राविधि पञ्चाशक
स्तवविधि नामक षष्ठ पञ्चाशक की तीसरी गाथा में जिनभवन, जिनबिम्ब, यात्रा, पूजा इत्यादि को द्रव्यपूजा कहा गया है। इसलिए सप्तम पञ्चाशक में जिनभवनविधि और अष्टम पञ्चाशक में जिनबिम्बप्रतिष्ठा विधि कही गयी है। अब नवम पञ्चाशक में यात्राविधि कहने के लिए ग्रन्थकार मंगलाचरण कर रहे हैं
मङ्गलाचरण
नमिऊण वद्धमाणं सम्मं संखेवओ पवक्खामि ।
जिणजत्ताएँ विहाणं सिद्धिफलं नत्वा वर्द्धमानं सम्यक् संक्षेपतः जिनयात्राया विधानं सिद्धिफलं
सुत्तणीईए ॥ १ ॥ प्रवक्ष्यामि ।
सूया ॥ १ ॥
भगवान् वर्धमान को नमस्कार करके संक्षेप में आगमानुसार मोक्षफलदायी जिन - यात्रा विधि का अच्छी तरह से विवेचन करूँगा ।। १ ॥
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सम्यग्दर्शन के आठ आचार
दंसणमिह मोक्खंगं परमं एयस्स अट्ठहाऽऽयारो ।
णिस्संकादी भणितो पभावणंतो
दर्शनमिह मोक्षाङ्गं परमं एतस्य निःशंकादिर्भणित: प्रभावनान्तो
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जिणंदेहिं ॥ २ ॥
जैनशासन में सम्यग्दर्शन मोक्ष का प्रधान कारण है। जिनेन्द्रदेव ने सम्यग्दर्शन के नि:शंकित से लेकर प्रभावना तक आठ आचार ( भेद) कहे हैं। यद्यपि आचार सम्यग्दर्शन युक्त जीवों के हैं, लेकिन गुरु और गुणी अभिन्न हैं, इसलिए गुणी के आचार गुण के आचार कहलाते हैं। इसलिए यहाँ सम्यग्दर्शन के आठ आचार ( भेद) कहे गये हैं। ये आठ आचार ( भेद) इस प्रकार हैं
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अष्टधाऽऽचारः ।
१. निःशंकित तीर्थङ्करवचन के प्रति सन्देह का अभाव । २. नि:कांक्षित ३. निर्विचिकित्सा. शरीर को देखकर ग्लानि न करना ।
जिनेन्द्रैः || २ ||
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इन्द्रियजन्य सांसारिक सुखों की इच्छा न करना । रत्नत्रय से पवित्र साधु के मलिन अथवा रुग्ण
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