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पञ्चाशकप्रकरणम्
साधु ही सम्पूर्ण आज्ञा का पालक णेयं च भावसाहुं विहाय अण्णो चएति काउं जे। सम्मं तग्गुणणाणाभावा तह कम्मदोसा य।। २५ ।। नेदं च भावसाधुं विहाय अन्यः शक्नोति कर्तुम्। सम्यक् तद्गुणज्ञानाभावात् तथा कर्मदोषाच्च ।। २५ ।।
भावसाधु के अतिरिक्त दूसरा कोई भी सम्पूर्ण आज्ञा का पालन नहीं कर सकता है, क्योंकि भाव साधुत्व से रहित अन्य व्यक्तियों को सम्पूर्ण आज्ञापालन से प्राप्त होने वाला यथार्थ लाभ नहीं मिलता है। साथ ही उनमें चारित्रमोहनीय आदि कर्मों का दोष भी होता है ।। २५ ।।
अन्य आचार्य भी भावस्तव को महान् मानते हैं इत्तो च्चिय फुल्लामिसथुईपडिवत्तिपूयमज्झमि । चरिमा गरुई इट्ठा अण्णेहिवि णिच्चभावाओ ।। २६ ॥ इत एव पुष्पामिषस्तुतिप्रतिपत्तिपूजामध्ये । चरमा गुर्वी इष्टा अन्यैरपि नित्यभावात् ।। २६ ॥
जिन-आज्ञा का पूर्णत: पालन साधु से ही हो सकता है। इसी कारण अन्य आचार्य भी पुष्प-पूजा, आहार-दान, स्तुति और चारित्र स्वीकार (प्रतिपत्ति) - इन चार पूजाओं में से अन्तिम पूजा (चारित्र स्वीकार) को महान् मानते हैं, क्योंकि वह प्रतिक्षण होती है, जबकि पुष्पादि पूजा कभी-कभी होती है ।। २६ ।।
दोनों स्तव परस्पर सम्बद्ध हैं दव्वत्थयभावत्थयरूवं एयमिह होति दट्ठव्वं । अण्णोऽण्णसमणुविद्धं णिच्छयतो भणियविसयं तु ।। २७ ।। द्रव्यस्तवभावस्तवरूपं एतदिह भवति द्रष्टव्यम् । अन्योऽन्यसमनुबिद्धं निश्चयतो भणितविषयं तु ।। २७ ॥
जिनभवन निर्माण आदि द्रव्यस्तव और चारित्रस्वीकार रूप भावस्तव - ये दोनों भिन्न-भिन्न होने पर भी परमार्थ से परस्पर सम्बद्ध हैं। इन दोनों के अधिकारी पहले कह दिये गये हैं, अर्थात् द्रव्यस्तव का अधिकारी गृहस्थ है और भावस्तव का साधु, किन्तु गौण रूप से गृहस्थ को भी भावस्तव होता है और साधु को द्रव्यस्तव। इसलिए दोनों स्तव परस्पर सम्बद्ध हैं ।। २७ ।। १. 'जे' इति पादपूरणे निपातः ।
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