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________________ प्रस्तावना ३. योगविशिकामें स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन और निरालम्बगत धर्मव्यापारको योग कहा है। इनमें-से स्थान और ऊर्णको कर्मयोग तथा शेष तीनको ज्ञानयोग कहा है। स्थानसे अभिप्राय आसनविशेष पद्मासन आदिसे है । ऊर्णसे उस शब्दको लिया है जिसका उच्चारण अनुष्ठानमें किया जाता है। उस शब्दसे जो कहा जाता है वह अर्थ है । बाह्य प्रतिभा आदिके आश्रयसे होनेवाला ध्यान आलम्बन है और उससे रहित अर्थात् निविकल्प समाधि निरालम्ब है। आलम्बनके दो प्रकार हैं-रूपी और अरूपी। अरहन्त व उनकी प्रतिमा रूपी आलम्बन है। सिद्धपरमात्माके केवलज्ञानादिरूप गणोंकी परिणतिरूप आलम्बन अरूपी है। सूक्ष्म होनेसे इसे निरालम्ब कहा गया है। ४. षोडशक प्रकरणके तेरहवें प्रकरणमें योगविशिकाके समान ही योगके सालम्बन और निरालम्बन दो भेद किये हैं। ज्ञानार्णव और योगशास्त्रके अनुसार ये सालम्बन और निरालम्बन योग रूपस्थ और रूपातीत ध्यानस्वरूप हैं उनसे भिन्न नहीं हैं। यह आश्चर्यकी बात है कि हरिभद्रसूरिके इस योगविषयक दृष्टिकोणका ज्ञानार्णव और योगशास्त्रपर कोई प्रभाव दष्टि गोचर नहीं होता। जबकि इन दोनों ग्रन्थों में परस्पर साम्य रहा है। इतना ही नहीं, महर्षि पतञ्जलि विरचित योगसूत्रका प्रभाव तो दोनों ग्रन्थोंपर स्पष्ट दीखता है। वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज दिल्ली ६-७-७६ -बालचन्द्र शास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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