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ज्ञानार्णवः
इतना ही नहीं, इसी योगसूत्रमें निर्दिष्ट यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ योगांगोंमें पूर्व पाँचकी अपेक्षा अन्तिम तीनको अन्तरंग कहा गया है, क्योंकि संप्रज्ञात समाधिमें साक्षात् उपकारक ये तीन ही हैं, पूर्व पाँच तो परम्परासे ही उसके उपकारक हैं। आगे चलकर इन अन्तिम तीनको भी शून्य भावना रूप निर्बीज समाधि (निरालम्ब ध्यान) की अपेक्षा बहिरंग कह दिया गया है. क्योंकि ये उस निर्बीज समाधिके साक्षात उपकारक न होकर परम्परासे ही उपकारक हैं।
जैन दर्शनके अनुसार भी वे ऋद्धियां आत्माके चरमोत्कर्षमें बाधक है। इन विद्या-मन्त्रोंकी प्ररूपणा दसवें विद्यानुवाद पूर्व में विस्तारसे की गयी है। उनके प्रसंगमें तिलोयपण्णत्ति (४,९९८-१०००) में यह कहा गया है कि विद्यानुवादके पढ़ते समय उसमें प्ररूपित रोहिणी आदि महाविद्याओंके पांच सौ तथा अंगुष्ठप्रसेनादि क्षुद्र विद्याओंके सात सौ देवता आकर जब आज्ञा मांगते हैं तब संयममें प्रतिष्ठित अभिन्नदशपूर्वी महर्षि उनकी इच्छा नहीं किया करते । इसीसे वे उत्तरोत्तर ज्ञान-ध्यान में उत्कर्षको प्राप्त होते हुए सर्वज्ञ केवली हो जाते हैं तथा अन्तमें मुक्तिको भी प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत जो उनकी इच्छा किया करते हैं वे अधःपतित मिथ्यादृष्टि होते हैं।
तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें भी प्रसंगप्राप्त इन ऋद्धियोंका वर्णन करते हुए अन्त में (१०-७, पृ. ३१६) यही कहा गया है कि योगी ध्यानके बलसे अनायास ही प्राप्त हुई इन ऋद्धियों के विषयमें तृष्णा व आसक्तिसे रहित होता है, इसीसे वह मोहको पूर्णतया नष्ट करके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका भी क्षय कर देता है। तब वह संसारबन्धनके बीजको दग्ध करता हुआ केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शुद्ध, बुद्ध एवं कृतकृत्य होकर निर्वाणसुखको प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकारसे जैन और योग इन दोनों ही दर्शनोंने अपनी-अपनी तत्त्वव्यवस्थाके अनुसार कुछ विशेषताको अपनाते हुए भी मुमुक्षुके लिए सांसारिक सुखकी ओरसे विमुख कर प्रशस्त मुक्तिके मार्गको प्रस्तुत किया है।
१२. हरिभद्रसूरिकी योगदृष्टि-जैन परम्परामें हरिभद्रसूरि विविध विषयों के प्रतिभाशाली विद्वान् हुए हैं। उनका योगविषयक भी गहन अध्ययन था। वर्तमानमें उनके द्वारा रचे गये योगविषयक चार ग्रन्थ उपलब्ध हैं-योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका और षोडशक प्रकरण ।
१. योगबिन्दुमें उन्होंने अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षयको योग कहा है। योगका अर्थ है मोक्षसे योजित करनेवाला व्यापार । इन पांचोंका स्वरूप उन्होंने पृथक्-पृथक् कहा है।
२. दूसरे योगदृष्टिसमुच्चयमें योगका विचार करते हुए योगबिन्दुसे भिन्न ही प्रक्रियाको अपनाया है । यहाँ योगके इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग इन तीन भेदोंका निर्देश किया है। तथा सर्वसंन्यासरूप सामर्थ्ययोगको ही प्रधान योग कहा है। आगे उन्होंने मित्रा, तारा, बला, दोप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा इन आठ योगदृष्टियोंका नामनिर्देश करके उनकी उपमा क्रमसे तृणाग्निकण, गोमय अग्निकण, काष्ठ अग्निकण, दीपप्रभा, रत्नप्रभा, सूर्यप्रभा और चन्द्रप्रभासे दी है। इनमें से प्रथम चार दृष्टियाँ सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके अभिमुख उस मिथ्यादृष्टिके होती हैं जिसका संसार पुद्गलपरावर्त मात्र (2) शेष रह गया है। शेष चार दृष्टियाँ सम्यग्दृष्टिके ही होती है । इत्यादि कथन किया है।
१. त्रयमन्तरङ्गं पूर्वेभ्यः । यो. सू. ३-७ । २. ज्ञानसार (३७-४४) और आ. देवसेन विरचित आराधनासार (७४-८३) में निरालम्ब शन्यध्यानकी
विशेष महिमा प्रकट की गयी है। ३. तदपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य । यो. सू. ३-८ ।
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