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________________ -७४ ३९. शुक्लध्यानफलम् ६९७ 2221) शक्यते न यथा ज्ञातुं पर्यन्तो व्योमकालयोः । तथा स्वभावजातानां गुणानां परमेष्ठिनः ॥७३ 2222) गगनघनपतङ्गाहीन्द्रचन्द्राचलेन्द्र क्षितिदहनसमीराम्भोधिकल्पद्रमाणाम् । निचयमपि समस्तं चिन्त्यमानं गुणानां परमगुरुगुणौधैननॊपमानत्वमेति ॥७४ 2221) शक्यते न-परमेष्ठिनः स्वभावजातानां गुणानाम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥७३॥ अथ विशेषमाह। मालिनी। 2222) गगनधन-[ परमगुरुगुणौघैः परमगुरोः गुणसमुदायैः एतेषां गुणाः उपमानत्वं न यान्ति । केषाम् । आकाश-मेघ-सूर्य-शेष-चन्द्र-हिमालय-पृथ्वी-अग्नि-वायु-समुद्र-कल्पवृक्षाणाम् । निचयं गुणानां समूहमपि । इति सूत्रार्थः ॥७४॥] अथ पुनरात्मस्वरूपमाह । जिस प्रकार आकाश और कालका अन्त नहीं जाना जा सकता है उसी प्रकार सिद्ध भगवान्के स्वाभाविक गुणोंका भी अन्त नहीं जाना जा सकता है ।।७३।। यदि सिद्धात्माके गुणों की तुलनाके लिए आकाश, मेघ, सूर्य, नागराज, इन्द्र, चन्द्र, सुमेरु, पृथिवी, अग्नि, वायु, समुद्र और कल्पवृक्षके समस्त गुणोंके समूहका भी विचार करें तो वह भी सिद्ध परमेष्ठी गुणसमूहके साथ उपमाको प्राप्त नहीं होता है-सिद्ध परमात्माके गुण उपर्युक्त आकाशादिकोंके गुणोंसे उत्कृष्ट होनेके कारण उनके साथ भी उनकी तुलना नहीं की जा सकती है। हीनाधिकताकी विशेषतासे रहित व विकारसे न उत्पन्न होनेवाले वे सिद्धात्माके गुण न तो असत्पूर्व हैं और सत्पूर्व भी हैं-शक्तिकी अपेक्षा उनका सद्भाव यद्यपि पूर्वमें था, फिर भी व्यक्तिकी अपेक्षा वे अपूर्व ही हैं क्योंकि, शक्तिरूपमें विद्यमान रहकर भी उनका पूर्व में कभी इस रूपसे विकास नहीं हुआ था। किन्तु उनके वे गण अपनी स्वाभाविक विशेषताको प्राप्त हो जानेसे अभूतपूर्व भी हैं, कारण कि उनकी यह विशेषता पूर्वमें कभी प्रकट नहीं हुई थी। विशेषार्थ-अभिप्राय इसका यह है कि सिद्धोंके जो अनन्तज्ञानादि गुण हैं। वे सर्वथा अभूतपूर्व नहीं हैं, क्योंकि, उनका सद्भाव शक्तिरूपसे संसार अवस्थामें सभी प्राणियोंके पूर्व में भी रहता है। इसका भी कारण यह है कि यदि वे शक्तिकी अपेक्षा पूर्व में न होते तो फिर उस अवस्था में भी वे प्रकट नहीं हो सकते थे। उदाहरणके रूपमें तिलके दानोंमें शक्तिरूपसे तेल जब विद्यमान रहता है तभी कोल्हू आदिकी सहायतासे उनमें वह प्रकट होता हुआ देखा जाता है। परन्तु बालुके कणोंमें वह चकि शक्तिरूपसे विद्यमान नहीं है, इसलिए उनसे तेलके निकालनेका कितना भी प्रयत्न क्यों ने किया जाये, १. All others except PN पर्यन्तं, N पर्यन्तव्योम । २. M N read this verse thus : तथा स्वभाव....परमेष्ठिनः । कोऽनन्तावगतादीनां स्वरूपं वक्तुमीश्वरः ॥, J read thus : तथा स्वभाव....परमेष्ठिनः । ततो निःशक्यते क....जगत्त्रये ॥ ३. After this verse JX Y Radd नासत्पूर्वाश्च etc. verse No.1 ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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