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________________ -५८ ] ६९३ ३९. शुक्लध्यानफलम् 2203) अवरोधविनिर्मुक्तो लोकाग्रं समये प्रभुः। धर्माभावे ततोऽप्यूवं गमनं नानुमीयते ॥५५ 2204) धर्मो गतिस्वभावो ऽयमधर्मः स्थितिलक्षणः । तयोर्योगात्पदार्थानां गतिः स्थितिरुदाहृता ।।५६ 2205) तौ लोकगगनान्तःस्थौ ततो लोके गतिस्थिती । अर्थानां न तु लोकान्तमतिक्रम्य प्रवर्तते ॥५७ 2206) स्थितिमासाद्य सिद्धात्मा तत्र लोकाग्रमन्दिरे । आस्ते स्वभावजानन्तगुणेश्वोपलक्षितः ॥५८ 2203) अविरोध-प्रभुः अविरोधविनिर्मुक्तः आवरणरहितः लोकानसमये। तथा ऊवं गमनं नानुमीयते । धर्माभावे धर्मास्तिकायाभावे । इति सूत्रार्थः ।।५५।। अथ धर्मादीनां स्वभावमाह । 2204) धर्मो गति-तयोः धर्माधर्मयोः योगात् संबन्धात् पदार्थानां गतिस्थितिः उदाहृता। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।५६|| पुनस्तयोविशेषमाह । 2205) तौ लोक-तौ धर्माधर्मलोकगगनान्तःस्थौ लोकाकाशस्थितौ । ततो लोके गतिस्थिती। अर्थानां पदार्थानाम् । न तु लोकान्तम् अतिक्रम्य परित्यज्य प्रवर्तते । इति सूत्रार्थः ।।५७॥ अथ पुनः तत्स्वरूपमाह। 2206) स्थितिमासाद्य-सिद्धात्मा लोकाग्रमन्दिरे आस्ते तिष्ठति । किं कृत्वा। स्थितिम् आसाद्य प्राप्य । कीदृशः । स्वभावजानन्तगुणैश्वर्योपलक्षितः सहजानन्तगुणसाम्राज्यसंयुक्तः । इति सूत्रार्थः ।।५८।। पुनस्तदेव इस प्रकार ऊर्ध्वगमन करके वे प्रभु प्रतिबन्धसे रहित होते हुए लोकके अग्रभाग तक ही जाते हैं, उसके आगे धर्मद्रव्यके विना नहीं जाते हैं। लोकशिखरके आगे (अलोकमें) जानेका अनुमान भी नहीं किया जा सकता है ।।५।। इस धर्मद्रव्यका लक्षण गतिहेतुता और अधर्मका लक्षण स्थितिहेतुता है। उन दोनोंके सम्बन्ध से पदार्थोंकी-जीवों व पुद्गलोंकी गति और स्थिति निर्दिष्ट की गयी है ।।५६।। वे दोनों-धर्म और अधर्म द्रव्य-चूंकि लोकाकाश तक ही अवस्थित हैं, अतएव पदार्थोंका गमन और अवस्थान लोकमें ही होता है, वह लोकके अन्तको लाँघकर अलोकमें नहीं होता है ॥५७॥ वह सिद्ध परमात्मा लोकके शिखरपर अवस्थित होकर स्वाभाविक अनन्त गणोंके वैभवसे परिपूर्ण होता हुआ वहाँ अनन्त काल रहता है ॥५८॥ १. LS F X R मुक्त । २. J लोकाग्र । ३. SJX Y R प्यूर्ध्व । ४. S T X Y R गतिस्थिती उदाहृते । ५. LS FX Y R गमना। ६. J मन्दिरं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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