SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 770
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१६*१] 2158) उक्तं च ३९. शुक्लध्यानफलम् Jain Education International अर्थादर्थं वचः शब्दं योगाद्योगं समाश्रयन् । पर्यायादपि पर्यायं द्रव्याणोश्चिन्तयेदणुम् ॥ १६१ ॥ इति । 2158) अर्थादर्थम् - अर्थात् अर्थसंक्रान्तिः वचः शब्दसंक्रान्तिः योगात् योगान्तरं समाश्रयेत् । पर्यायात् अपि पर्यायसंक्रान्तिः । द्रव्याणोः सकाशात् अणुं चिन्तयेत् । इति सूत्रार्थः || १६१ || अथ पुनराह । ६८१ जानेपर स्वच्छ हुआ वस्त्र शुक्ल ( धवल ) कहा जाता है उसी प्रकार राग-द्वेषरूप मैल दूर हो जानेपर जो निर्मल आत्मपरिणति होती है, उससे सम्बद्ध ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है । वह चार प्रकारका है - पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति । इनमें पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान सपृथक्त्व, सवीतर्क और सवीचार माना जाता है । कारण इसका यह है कि इस ध्यानमें प्रवृत्त हुआ योगी एकाग्रचित्त होकर राग, द्वेष व मोहको उपशान्त करता हुआ बाह्य व अभ्यन्तर द्रव्य-पर्यायोंका ध्यान करता है। जिस प्रकार मन्द उत्साहयुक्त बालक अव्यवस्थित और मौथरी कुल्हाड़ीसे दीर्घ कालमें वृक्षको काटता है उसी प्रकार ध्यान में प्रवृत्त योगी वितर्कके बलसे अर्थ, व्यंजन तथा काय व वचनको भेदरूपसे ग्रहण करनेवाले मनके द्वारा मोहनीय प्रकृतियोंका उपशम अथवा क्षय किया करता है । वह हीन शक्तिके कारण एक योगसे दूसरे योगका, एक श्रुतवाक्यसे दूसरे श्रुतवाक्यका तथा अर्थसे अर्थान्तरका आश्रय लेता है । जो मुनि समस्त मोहनीय कर्मको नष्ट करनेका इच्छुक हो विशेष योगका आश्रय लेता हुआ वितर्क ( श्रुतज्ञानोपयोग ) से सहित परन्तु अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्तिसे रहित होकर निश्चल मनसे कषायको क्षीण करता है उसके एकत्ववितर्क नामका द्वितीय शुक्लध्यान होता है। इस ध्यानके सामर्थ्य से जिस योगीने घातिया कर्मोंका क्षय करके केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया है उसकी आयु जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाती है तब यदि उसके नाम, गोत्र व वेदनीयकी स्थिति आयु कर्मके ही समान होती है तो वह समस्त वचनयोग व मनयोगको तथा बादर काययोगको नष्ट करके सूक्ष्म काययोगका आलम्बन लेता हुआ तृतीय सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यानका ध्याता होता है । परन्तु यदि आयु कर्मकी अपेक्षा उक्त तीन कर्मोकी स्थिति अधिक है तो फिर वह दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातों द्वारा चार समयों में आत्मप्रदेशोंको विस्तृत करता हुआ तत्पश्चात् चार समयोंमें उन विस्तृत आत्मप्रदेशोंको संकुचित करके पूर्वशरीरप्रमाण करता है । उस समय उसके चारों अघातिया कर्मोकी स्थिति समान हो जाती है । तब वह सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यानका ध्याता होता है । तत्पश्चात् वह समुच्छिन्नक्रियानिवर्ती नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको प्रारम्भ करता है । उस समय चूँकि प्राणापानका संचार तथा काय, वचन और मन योगोंके द्वारा होनेवाली आत्मप्रदेशपरिस्पन्दनरूप क्रिया सर्वथा नष्ट हो जाती है, अतएव इस ध्यानको समुच्छिन्न-क्रियानिवर्ती ध्यान कहा जाता है ।। १५-१६ ।। कहा भी है । योगी शुक्लध्यान में एक अर्थ से दूसरे अर्थका, एक वचनसे दूसरे वचनका, एक योगसे १. T शब्दात् योगाः । २. All others except P समाश्रयेत् । ८६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy