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________________ ५७२ ज्ञानार्णवः [३३.५१1742 ) सहायः को ऽपि कस्यापि नाभून्न' च भविष्यति । मुक्त्वैकं प्राक्कृतं कर्म सर्वसवाभिनन्दकम् ॥५१ 1743 ) तत्कुर्वन्त्यधमाः कर्म जिह्वोपस्थादिदण्डिताः । येन श्वश्रेषु पच्यन्ते कृतातकरुणस्वनाः ॥५२ 1744 ) चक्षुरुन्मेषमात्रस्य सुखस्यार्थे कृतं मया । तत्पापं येन संपन्ना अनन्ता दुःखराशयः ॥५३ 1745 ) याति साधं ततः पाति करोति नियतं हितम् । हन्ति दुःखं सुखं दत्ते यः स बन्धुर्न पोषितः ॥५४ 1742) सहायः-एक प्राक्कृतं कर्म मुक्त्वा त्यक्त्वा। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥५१।। अथ दुष्कर्मफलमाह। 1743) तत्कुर्वन्ति–अधमाः तत्कर्म कुर्वन्ति। कीदृशा अधमाः। जिह्वोपस्थादिदण्डिताः । जिह्वा प्रसिद्धा । उपस्थं लिङ्गादि । तैर्दण्डिताः। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥५२॥ अथ पुनदुःखं भावयति। _____1744) चक्षुरुन्मेष-येन पापेन अनन्ता दुःखराशयः संपन्नाः प्राप्ताः। शेषं सुगमम्। इति सूत्रार्थः ।।५३॥ अथ धर्मस्वरूपमाह । ___1745) याति साधं-यः स धर्मः बन्धुः। न पोषितः बन्धुः भवति । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।५४॥ अथैतदेवाह । सब ही प्राणियोंका अभिनन्दन करनेवाले-उन्हें सुख देनेवाले-एक पूर्वकृत कर्मको छोड़कर अन्य कोई भी किसीका न कभी सहायक हुआ है और न होगा ही ॥५१॥ हीन प्राणी जिह्वा और जननेन्द्रियसे पीड़ित होकर उस कृत्यको किया करते हैं कि जिसके द्वारा करुणापूर्ण आक्रन्दन करते हुए नरकोंमें पकाये जाते हैं-नरकोंमें नारकी होकर असह्य दुःखको सहते व विलाप करते हैं ॥५२॥ __मैंने चक्षुके उन्मेष मात्र नेत्रपलकके परिक्षेपरूप क्षणिक-सुखके लिए वह पाप किया है कि जिसके कारण यहाँ अनन्त दुःखोंकी राशियाँ प्राप्त हुई हैं ॥५३॥ जो (धर्म) प्राणीके साथ जाता है, दुःखसे रक्षण करता है, सदा हित ही किया करता है, दुःखको नष्ट करता है, और सुखको देता है; वह यथार्थमें बन्धु ( हितैषी ) है। परन्तु जिनका भरण-पोषण किया जाता है वे कुटुम्बीजन वस्तुतः बन्धु नहीं है, क्योंकि, उनमें बन्धुत्वका उपर्युक्त लक्षण नहीं पाया जाता है ।।५४॥ १. M N न चा भून्न । २. M मुक्त्वैवं....सर्वः सर्वाभि । ३. x Y धर्मों for बन्धुः । ४. N LS T FR योषितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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