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________________ XXXIII [ संस्थानविचयः ] 1689 ) अनन्तानन्तमाकाशं सर्वतः स्वप्रतिष्ठितम् । तन्मध्ये ऽयं स्थितो लोकः श्रीमत्सर्वज्ञवर्णितः ॥ १ 1690 ) स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतैः पदार्थैश्चेतनेतरैः । संपूर्णो ऽनादिसंसिद्धः कर्तृव्यापारवर्जितः ॥ २ 1691 ) ऊर्ध्वाधो मध्यभागैर्यो बिभर्ति भुवनत्रयम् । अतः स एव सूत्रज्ञैस्त्रैलोक्याधार इष्यते ॥ ३ 1689) अनन्तानन्तम् - आकाशम् अनन्तानन्तम् । कीदृशम् । सर्वतः स्वप्रतिष्ठितम् । तन्मध्ये अयं लोकः स्थितः । कीदृशः । श्रीमत्सर्वज्ञवर्णितः । इति सूत्रार्थः ॥ १॥ पुनर्लोकस्वरूपमाह । 1690) स्थित्युत्पत्ति - पदार्थैः चेतनेतरैः संपूर्णः । पुनः कीदृशः । अनादिसंसिद्धः । कीदृशैः । स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतैः । सुगमम् । पुनः कीदृशः । कर्तृव्यापारवर्जितः । सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥२॥ अथ पुनर्लोकस्वरूपमाह । 1691 ) ऊर्ध्वाधोमध्य - यो लोकः भुवनत्रयं बिर्भात । ऊर्ध्वाधोमध्यभागैः । अतः स एव सूत्रज्ञैः त्रैलोक्याधारः इष्यते । इति सूत्रार्थः ॥ ३॥ अथ लोकस्वरूपमाह । संस्थानविचय धर्मध्यानमें योगी इस प्रकारसे लोकके स्वरूपका विचार करता है - सब ओर अनन्तानन्त आकाश है जो स्वप्रतिष्ठित है— सबसे अधिक परिणामवाला होनेसे अन्य किसीका आश्रय न लेकर वह स्वाश्रित है । उस अनन्तानन्त आकाशके मध्य में यह लोक स्थित है। उसके स्वरूपका वर्णन अन्तरंग व बहिरंग लक्ष्मीसे विभूषित सर्वज्ञ देवके द्वारा किया गया है ||१|| स्थिति, उत्पाद और व्ययसे संयुक्त ऐसे चेतन व अचेतन पदार्थोंसे परिपूर्ण वह लोक अनादिकालसे सिद्ध तथा कर्ताके व्यापारसे रहित है-उसका निर्माण करनेवाला कोई नहीं है ॥२॥ Jain Education International वह लोक ऊर्ध्व, अधः और मध्य भागोंके द्वारा तीनों लोकोंको — उनमें स्थित प्राणियों - को - धारण करता है । इसीलिए आगमके मर्मज्ञ उसे तीनों लोकोंका आधार मानते हैं ॥३॥ १. Y सु for स्व । २. Pत्रि for त्रै ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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