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________________ ५३१ -९२ ] २९. शुद्धोपयोगविचारः 1602 ) अभेदविद्यथा पगोर्वेत्ति चक्षुरचक्षुषि । ___ अङ्गस्यैव तथा वेत्ति संयोगाढुशेमात्मनः ।।९० 1603 ) भेदविन्ने यथा वेत्ति पङ्गोश्चक्षुरचक्षुषि । ज्ञातात्मा न तथा वेत्ति तां" काये दृर्शमात्मनः ।।९१ 1604 ) मत्तोन्मत्तादिचेष्टासु यथाज्ञस्य स्वविभ्रमः। तथा सर्वास्ववस्थासु न क्वचित्तत्त्वदर्शिनः ।।९२ 1602) अभेदविद्यथा-अभेदविदचक्षुषि चक्षुर्वेत्ति । यथा पङ्गोः पादहीनस्य । तथात्मनः संयोगाद् दृश्यं वेत्ति । इति सूत्रार्थः ॥२०॥ अथ भेदभावं दर्शयति । ___1603) भेदविन्न-भेदवित् भेदं वेत्तीति। पङ्गोः चरणहीनस्य । अचक्षुषि नेत्ररहिते । ज्ञातात्मा ज्ञातः आत्मा येन सः । इति सूत्रार्थः ।।९१।। अथ तत्त्वदर्शिनः स्वरूपमाह । 1604) मत्तोन्मत्तादि-यथाज्ञस्य मूर्खस्य मदोन्मत्तादिचेष्टासु स्वविभ्रमो भवति, तथा सर्वास्ववस्थासु तत्त्वदर्शिनः क्वचिन्नेति सूत्रार्थः ।।१२।। अथ देहदृष्टेर्मुक्ताभावमाह । चाहिए ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जातिभेदोंका, विविध प्रकारके साधु आदि वेषोंका तथा पुरुष-स्त्री आदिरूप लिंगभेदोंका सम्बन्ध केवल शरीरसे ही है; न कि अमूर्तिक आत्मासे । इसलिए जिन प्राणियोंका यह आग्रह रहता है कि अमुक जाति, अमुक वेष और अमुक लिंगसे ही मुक्ति प्राप्त होती है, अन्यसे नहीं; उनका यह आग्रह योग्य नहीं है। कारण यह कि शरीर और आत्माका स्वरूप सर्वथा भिन्न है। इसलिए संसारके कारणभूत एकमात्र उस शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाली जाति एवं लिंगादिके अभिमानका परित्याग करना चाहिए ॥८९॥ जो अन्धेके कन्धेपर अवस्थित लँगड़ेको उससे भिन्न नहीं देखता है-दोनोंको अभिन्न समझता है-वह जिस प्रकार लँगड़ेकी आँखको अन्धेमें अन्धेकी आँख जानता है उसी प्रकार शरीरसे आत्माको पृथक् न जाननेवाला अज्ञानी प्राणी शरीरके ही संयोगसे आत्माकी दृष्टिको-ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूपको-शरीरकी ही दृष्टि समझता है। परन्तु उन दोनों में भेदको देखनेवाला प्राणी जिस प्रकार लँगड़ेकी दृष्टिको अन्धमें नहीं जानता है उसी प्रकार जो विवेकी जीव आत्माको शरीरसे भिन्न जानता है वह आत्माकी उस दृष्टिको-विवेकबुद्धिको-शरीरमें नहीं देखता है ।।९०-९।। जिस प्रकार अज्ञानी जीवको केवल नशायुक्त और पागल आदिकी चेष्टाओंमें ही आत्माकी भ्रान्ति होती है उसी प्रकार आत्मदर्शी अन्तरात्माको सब अवस्थाओंमें से किसी भी अवस्थामें आत्माकी भ्रान्ति नहीं होती है । विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि शरीरसे आत्मा १. All others except P अङ्गेऽपि च । २. All others except P Q N T Y दृश्य', Y द्रस । ३. Jभेदभिन्नो। ४. LS F R विज्ञातात्मा तथा, J जातात्मा न, Y ज्ञात्मानस्तथा । ५. LS FJR न काये, X Y तं काये। ६. All others except P Y दश्यमात्मनः । ७. 0. Y यथाज्ञः स्वस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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