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________________ ५३० ज्ञानार्णवः [२९.८६1598 ) व्यतिरिक्तं तनोस्तद्वद्भाव्यमात्मानमात्मनि । स्वप्ने ऽप्ययं यथाभ्येति पुनर्नाङ्गेन संगतिम् ॥८६ 1599 ) यतो व्रताव्रते पुंसां शुभाशुभनिबन्धने । तदभावः पुनर्मोक्षो मुमुक्षुस्ते ततस्त्यजेत् ।।८७ 1600 ) प्रागसंयममुत्सृज्य संयमैकरतो भवेत् । ततो ऽपि विरमेत् प्राप्य सम्यगात्मन्यवस्थितिम् ।।८८ 1601 ) जातिलिङ्गमिति द्वन्द्वमङ्गमाश्रित्य वर्तते । अङ्गात्मकश्च संसारस्तस्मात्तद्वितयं त्यजेत् ।।८९ 1598) व्यतिरिक्तं-तनोः शरीरात् व्यतिरिक्तं तदात्मनि आत्मानं भाव्यम् । अयं स्वप्ने ऽपि यथा येन संगति नाभ्येति । इति सूत्रार्थः ॥८६॥ अथ पुनरेतदेवाह। ____1599) यतो व्रताव्रते-यतो व्रताव्रते पुंसां शुभाशुभनिबन्धने । तदभावः पुनर्मोक्षो मुमुक्षुस्तेन कारणेन । तदभावः शुभाशुभभावः पुनः मोक्षः। मुमुक्षुस्तेन तत्त्यजेत् । इति सूत्रार्थः ॥८७।। अथासंयमाभावमाह। 1600) प्रागसंयमम्-असंयमं पृथक् उत्सृज्य त्यक्त्वा संयमैकरतो भवेत् । ततो ऽपि विरमे असंयमात् । किं कृत्वा। सम्यगात्मव्यवस्थिति प्राप्येति सूत्रार्थः ।।८८॥ अथ शरीरस्वरूपमाह । 1601) जातिलिङ्गम्-जातिलिङ्गमिति द्वन्द्वमङ्गमासाद्य प्राप्य वर्तते। अङ्गात्मकः शरीरात्मकः संसारस्तस्मात् कारणात् । तद्वितयम् अङ्गसंसारद्वयं त्यजेत् । इति सूत्रार्थः ॥८९।। अङ्गस्य भेदमाह। आत्माका अपने में अपने ही द्वारा शरीरसे भिन्न इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए कि जिस प्रकारसे यह आत्मा स्वप्नमें भी उस शरीरके साथ फिरसे संयोगको प्राप्त न हो सके- । उसका उस शरीरसे सम्बन्ध ही सर्वथा छूट जाये ।।८।। ___ चूँकि व्रत और अव्रत ये दोनों क्रमसे जीवोंके पुण्य और पापके कारण हैं तथा उन दोनोंका पुण्य और पापका-अभाव ही मोक्ष है; अतएव मोक्षाभिलाषी प्राणीको उन दोनोंका -व्रत और अबतका-भी परित्याग करना चाहिए ॥८७॥ पहिले असंयम (अव्रत-हिंसादि) को छोड़कर संयममें असाधारण स्वरूपसे अनुरक्त होना चाहिए। तत्पश्चात् फिर आत्मामें भलीभाँति अवस्थानको प्राप्त होकर संयमसे भी विरत हो जाना चाहिए-मुक्तिके बाधक स्वरूप उस संयमका भी परित्याग कर देना चाहिए ॥८॥ जाति (ब्राह्मणत्वादि ) और लिंग ( दिगम्बरत्व, श्वेताम्बरत्व और भूति व बल्कल धारण आदि; अथवा पुल्लिग-स्त्रीलिंग आदि) ये दोनों शरीरके आश्रित रहते हैं-आत्माके आश्रित नहीं हैं तथा उस शरीरस्वरूप ही संसार है। इसलिए उन दोनोंको छोड़ देना १.LS Y R°व्य आत्मात्मनात्मनि । २. J व्रतोतते । ३.Qनिबन्धनम् । ४. All others except P M N Q भावात् । ५. Q M N T JX Y °मासाद्य, F °मावत्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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