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________________ ५२८ ज्ञानार्णवः [२९.८० 1592 ) आत्मेति वपुषि ज्ञानं कारणं कायसंततेः । स्वस्मिन् स्वमिति विज्ञानं स्याच्छरीरान्तरच्युतेः ॥८० 1593 ) योजयत्यात्मनात्मानं स्वयं जन्मापवर्गयोः । अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव स्फुटमात्मनः ॥८१ 1594 ) पृथग् दृष्ट्वात्मनः कायं कायादात्मानमात्मवित् । 'ततस्त्यजति संयोगं यथा वस्त्रं घृणास्पदम् ।।८२ __1592) आत्मेति-वपुषि शरीरे आत्मेति ज्ञानम् । तत् कायसंततेर्जन्मपरंपरायाः कारणम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥८०॥ पुनरप्यात्मस्वरूपमाह । 1593) योजयत्यात्मना-आत्मा आत्मना भवं मोक्षं स्वतो जातं मोक्षं यतः आत्मनः कुरुते । अतः कारणात् अयमात्मैव रिपुः शत्रुः । च पुनः । गुरुः । कस्य। स्फुटं यथा स्यादात्मनः । इति सूत्रार्थः ।।८१॥ अथ पुनरपि एतदेवाह । 1594) पृथग दृष्ट्वा-आत्मनः कायं पृथग् दृष्ट्वा कायादात्मानं पृथग् दृष्ट्वा आत्मवित् तथा त्यजति अशङ्कः। अङ्गं शरीरं घृणास्पदं कुत्सितं वस्त्रमिति सूत्रार्थः ।।८२॥ अथात्मशरीरभेदज्ञानमाह। नगरादिमें जानता है। किन्तु जिस अन्तरात्माको स्व-परका भेदविज्ञान उत्पन्न हो चुका है वह उस भ्रान्तिको छोड़कर अपने निवासको सभी अवस्थाओंमें अपनेआपमें ही जानता है ।।७।। शरीर में 'यही आत्मा है' इस प्रकारका ज्ञान शरीरपरम्पराका-संसारमें परिभ्रमण करते हुए बार-बार शरीरके ग्रहणका कारण होता है। इसके विपरीत अपनेआपमें ही जो 'यह शरीरसे पृथक् , अमूर्तिक और ज्ञानमय आत्मा है' इस प्रकारका ज्ञान होता है वह शरीरान्तरकी पृथक्ता-शरीरसम्बन्धसे रहित होकर मुक्तिकी प्राप्तिका कारण है ।।८०॥ यह आत्मा चूँकि स्वयं ही अपनेआपको संसार और मोक्षमें योजित करता है, इसी. लिए स्पष्टतया वही स्वयं अपना शत्रु है और वही स्वयं अपना गुरु है ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जब तक प्राणी शरीरादिसे अपनेको पृथक् नहीं समझता है तब तक वह भ्रमवश उनको ही अपना मानता है और निरन्तर उन्हींमें मुग्ध रहता है। तब इससे जो कर्मबन्ध होता है उससे फिर स्वयं संसारमें परिभ्रमण किया करता है। इस प्रकारसे वह स्वयं ही अपना शत्रु हो जाता है । इसके विपरीत यदि वह स्वयं अपनेको स्वभावतः उन शरीरादिसे भिन्न, अमूर्तिक और अनन्तज्ञान-सुखादिस्वरूप अनुभव करता है तो वह संसारपरिभ्रमणसे छूट जाता है। इससे यह समझना चाहिए कि वस्तुतः प्राणी अपना स्वयं ही शत्रु और मित्र है-दूसरा कोई भी उसका शत्रु और भिन्न नहीं है ।।८१।। आत्मस्वरूपका वेत्ता-अन्तरात्मा-आत्मासे शरीरको और शरीरसे आत्माको भिन्न अनुभव करके उसके सम्बन्धको घृणाके कारणभूत वस्त्रके समान छोड़ देता है-जिस प्रकार १. All others except P read first line आत्मात्मना ( F नि ) भवं मोक्षमात्मनः कुरुते यतः । २. N LS T F J X Y R तथा for ततः। ३. All others except P'त्यशङ्कोऽहं for संयोगं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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