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________________ २९. शुद्धोपयोगविचारः ५२७ 1588 ) मुक्तिरेव मुनेस्तस्य यस्यात्मन्यचला स्थितिः ।। न तस्यास्ति ध्रुवं मुक्तिने यस्यात्मन्यवस्थितिः ॥७६ 1589 ) दृढः स्थूलः स्थिरो दी? जीणः शीणों गुरुलघुः । वपुपैमसंबध्नन् स्वं विद्याद्वेदनात्मकम् ॥७७ 1590 ) जनसंसर्गवाक्चित्तपरिस्पन्दमनोभ्रमाः ।। __उत्तरोत्तरबीजानि ज्ञानी जनमतस्त्यजेत् ।।७८ 1591 ) नगग्रामादिषु स्वस्य निवासं वेत्यनात्मवित् । सर्वावस्थासु विज्ञानी स्वस्मिन्नेवास्तविभ्रमः ।।७९ 1588) मुक्तिरेव-यस्यात्मनि स्वरूपे ऽवस्थितिरवस्थानम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥७६।। अथ शरीरस्वभावमाह । ___1589) दृढः स्थूलः-वपुषैवमसंबन्धात् स्वमात्मानं वेदनात्मकं विन्द्यात् । इति सूत्रार्थः । शेषं सुगमम् ।।७७।। अथ संसारकारणत्यागमाह। . 1590) जनसंसर्ग-ज्ञानी जनस्ततस्त्यजेत् । जनसंसर्गवाचित्तपरिस्पन्दमनोभ्रमाः जनसंबन्धयोगत्रयमिलितमनोभ्रमाः उत्तरोत्तरबीजानि संसारस्येति गम्यमिति सूत्रार्थः ।।७८।। अथ ज्ञानिनः स्वरूपमाह। 1591) नगग्रामादिषु-अनात्मवित् नगग्रामादिषु स्वस्य निवासं वेत्ति जानाति । विज्ञानी सर्वास्ववस्थासु अस्तविभ्रमः स्वस्मिन्नेव वासं मन्यते । इति सूत्रार्थः ॥७९।। अथ शरीरज्ञानं शरीरकारणमित्याह । जिस मुनिका आत्मामें स्थिर अवस्थान हो चुका है उसकी कर्मबन्धसे मुक्ति निश्चित ही होनेवाली है। किन्तु जिसका अपनेआपमें अवस्थान नहीं हुआ है जो बाह्य परवस्तुओंको ही अपना मान रहा है-उसकी उस बन्धसे मुक्ति सम्भव नहीं है ॥७६॥ ___ मैं दृढ़ हूँ, स्थूल हूँ, स्थिर हूँ, दीर्घ हूँ, जीर्ण हूँ, शीर्ण हूँ, लघु हूँ, और गुरु हूँ; इस प्रकारसे शरीरके साथ सम्बन्ध न करके-इन सब शरीरगत विशेषताओंको आत्माकी न मानकर-अपनेआपकी ज्ञानस्वरूप अनुभव करना चाहिए ।।७७॥ जनसंसर्ग, वाक्परिस्पन्द, चित्तपरिस्पन्द और मनोभ्रम ये उत्तरोत्तर एक दूसरेके कारण हैं । इसलिए विवेकी जीवके लिए जनसंसर्गका परित्याग करना चाहिए। अभिप्राय यह है कि लौकिक जनसे सम्बन्ध होनेपर प्रथमतः वाग्व्यवहार होता है, उससे चित्तमें विक्षेप ( चंचला ) होता है, और फिर उससे मनमें भ्रान्ति उत्पन्न होती है। इसलिए इस सबका मूल कारण जनसम्पर्कको जानकर उसका परित्याग करना चाहिए ॥७॥ जो बहिरात्मा आत्मस्वरूपको नहीं जानता है वह अपने निवासको पर्वत और १. P adds this verse on the margin | २. All others except PQ लघर्गरुः। ३. M N वपुष्येव, Y वपुषैव समं बध्नन् । ४. All others except P QF विन्द्यात् ।। ५. LS FJ X Y R संसर्गे। ६.Y भ्रमं । ७. QLS T F JR जनस्तत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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