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________________ t -३३ ] २९. शुद्धोपयोगविचारः 1542 ) एतदेवैष' एकद्विवहूनीति धियः पदम् । नाहं यत्वात्मनात्मानं वेच्यात्मनि तदस्म्यहम् ||३० (1543) यदबोधे मया सुप्तं यद्वोघे पुनरुत्थितम् । तद्रूपमयमत्यक्षं स्वसंवेद्यमहं किल || ३१ ७ 1544 ) ज्योतिर्मयं ममात्मानं पश्यतो ऽत्रैव यान्त्यमी । क्षयं रागादयस्तेन न मे कश्चिद्रिपुः प्रियः || ३२ 1545 ) अदृष्टमत्स्वरूपो ऽयं जनो में न रिपुः प्रियः । साक्षान्मदृष्टरूपोऽपि जनो नेष्टो न च द्विषन् || ३३ 1542 ) एतदेवैषः -- एतद् एव एषः । एकं द्वे बहूनि निधयः * पदं स्थानं भवन्ति । आत्मा तत्र नाहम् । यत्र आत्मनात्मानं वेत्त्य ज्ञात्वा आत्मनि तदस्म्यहम् । आत्मनि अहं वर्ते । इति सूत्रार्थः ||३०|| अथ पुनरात्मस्वरूपमाह । ५१५ 1543) यदबोधे – यस्याज्ञाने मया सुप्तम् । यद्वोघे ज्ञाने पुनरुत्थितम् । तद्रूपमयं संवेद्यम् अहम् | किल सत्ये । इति सूत्रार्थः ||३१|| अथ पुनरात्मस्वरूपमाह । 1544 ) ज्योतिर्मयं - मम पश्यतः रागादयः क्षयं नाशं यान्तीति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ अथैतदेवाह । 1545 ) अदृष्ट - अयं जनो अदृष्टमत्स्वरूपः न दृष्टं मत्स्वरूपं येन सो ऽरिर्न शत्रुः मे । न प्रिय मित्रम् | साक्षात्सुदृष्टरूपोऽपि जनो "नारिर्मे न च * सुहृन्मित्रं मे । इति सूत्रार्थः ||३३|| अथ योगिनो माहात्म्यमाह । नपुंसक, स्त्री और पुरुष इस प्रकार लिंगभेद विषयक जो बुद्धि होती है तथा एक, दो और तीन इस प्रकारकी जो संख्याभेद्विषयक बुद्धि होती है; उसका स्थान मैं नहीं हूँ । किन्तु जो अपने द्वारा अपने आपमें ही अपने आपको जानता है वह मैं हूँ ||३०|| जिस रूपका बोध न होनेपर मैं सोया हुआ था - अपने लक्ष्यसे विमुख हो रहा था तथा अब जिसका बोध हो जानेपर मैं उठ गया हूँ - प्रबुद्ध होकर आत्महितके साधनमें प्रवृत्त हो चुका हूँ - उसी रूप स्वरूप मैं अतीन्द्रिय होकर केवल स्वसंवेदन ( आत्मानुभवन ) से ही गम्य हूँ ||३१|| अपने आपको प्रकाशस्वरूप देखनेवाले मेरे ये राग-द्वेषादि यहीं पर विनाशको प्राप्त होते हैं । इस कारण न मेरा कोई शत्रु है और न कोई प्रिय ( मित्र ) है ||३२|| जिसने मेरे स्वरूपको - आत्मस्वरूपको नहीं देखा है वह यह जन न मेरा शत्रु है. और न प्रिय भी है। तथा जिंसने प्रत्यक्ष में मेरे स्वरूपको देख लिया है वह भी जन न प्रिय है और न वैरी भी है ||३३|| Jain Education International १. PM L S T F एतदेषैष । २. M NLST X Y R एकं द्वे बहूनीति, F बहूनि निधयः, J द्वी बहूनि निधयः । ३. M यस्त्वात्म, All others except PM N यच्चात्मना । ४. Q यदबोधि । ५. M N मजमत्यक्षं, LSTFJ XK मयप्रत्यक्षं । ६. N महात्मानं । ७. All others except P स्तेन नारिः कोऽपि प्रियो न मे । ८. All others except P जनो नारिर्न मे प्रियः.... त्सुदृष्टः .... जनो नारिः सुहृन्न मे । ९. M N साक्षाच्च दृष्ट | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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