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________________ -७] २९. शुद्धोपयोगविचारः ५०७ 1516 ) अतः प्रागेव निश्चयः सम्यगात्मा मुमुक्षुभिः । अशेषपरपर्यायकल्पनाजालवर्जितः ।।४।। तथा हि'1517) त्रिप्रकारः स भूतेषु सर्वेष्वात्मा व्यवस्थितः । बहिरन्तः परश्चेति विकल्पैर्वक्ष्यमाणकैः ।।५ 1518 ) आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोहनिद्रास्तचेतनः ।।६ 1519 ) बहिर्भावानतिक्रम्य यस्यात्मन्यात्मनिश्चयः । सो ऽन्तरात्मा मतस्तज्ज्ञैर्विभ्रमध्वान्तभास्करः ।।७ 1516) अतः प्रागेव-अतः कारणात् मुमुक्षुभिः सम्यगात्मा प्रागेव पूर्व निश्चयः निर्णेतव्यः । पुनः कीदृशः। अशेषपरपर्यायकल्पनाजालवजितः सर्वपरपर्यायकल्पनाजालवर्जितः। इति सूत्रार्थः ॥४॥ अथ पुनरात्मभेदमाह। तथा हि। ____1517) त्रिप्रकार:-सर्वेषु भूतेषु त्रिप्रकारः आत्मा व्यवस्थितः । बहिरात्मा-अन्तरात्माविकल्पैर्वक्ष्यमाणकैः । इति सूत्रार्थः ।।५।। अथ बहिरात्मानमेवाह । ____1518) आत्मबुद्धिः-यस्य जीवस्य शरीरादावात्मबुद्धि: स्यात् । कस्मात् । आत्मविभ्रमात् । स बहिरात्मा विज्ञेयः । कीदृशः । मोहनिद्रास्तचेतनः । इति सूत्रार्थः ।।६।। अथान्तरात्मानमाह । ____1519) बहिर्भावान्-यस्य पुंसः आत्मनि आत्मनिश्चयः स्यात् । किं कृत्वा । बहिर्भावान् शरीरादीन् अतिक्रम्य। तज्ज्ञैरन्तरात्मज्ञैः सो ऽन्तरात्मा मतः कथितः । कीदृशैः। विभ्रमध्वान्तभास्करै.* सूर्यैः । इति सूत्रार्थः ।।७।। अथ परमात्मानमाह ।। ___ इसलिए जो भव्य जीव मोक्षसुखकी अभिलाषा करते हैं उन्हें सर्वप्रथम समस्त परपदार्थ (शरीरादि) और उनकी सब ही पर्यायोंके कल्पनासमूहसे रहित उस आत्माका ही भलीभाँति निश्चय करना चाहिए ||४|| __ वह इस प्रकारसे-वह आत्मा बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन आगे प्ररूपित किये जानेवाले तीन भेदोंसे तीन प्रकारका है जो सब ही प्राणियोंके भीतर व्यवस्थित है।५।। जिस जीवके अपनी अज्ञानताके कारण-आत्मस्वरूपका यथार्थबोध न होनेसेशरीरादि पर पदार्थों के विषयमें आत्मबुद्धि हुआ करती है, अर्थात् जो आत्मस्वरूपसे अनभिज्ञ होकर शरीरको आत्मा और उससे सम्बद्ध अन्य सब ही पर पदार्थों (स्त्री, पुत्र एवं धनसम्पत्ति आदि) को अपना मानता है, उसे बहिरात्मा जानना चाहिए। उसकी चेतनाविवेकबुद्धि-मोहरूपी निद्राके द्वारा नष्ट कर दी गयी है ।।६।। जिसे बाह्य पदार्थोंको पृथक् करके आत्माके विषयमें ही आत्माका निश्चय हो चुका है-जो शरीरादिको पर और आत्माको ही आत्मा मानता है-उसे आत्मतत्त्वके ज्ञाता अन्तरात्मा मानते हैं । वह अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करनेके लिए सूर्यके समान है ।।७।। १.PQMY तथा हि। २. MY त्रिः, M LSX R प्रकारं। ३. Y विपक्षैर्वक्ष्य । ४. L S T F JX Y R भास्करैः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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