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________________ -२८] ५०१ २८. सवीर्यध्यानम् 1497 ) यदग्राह्यं बहिर्भावैाह्यं चान्तर्मुखैः क्षणम् । तत्स्वभावात्मकं साक्षात् स्वरूपं परमात्मनः ॥२६ 1498 ) अणोरपि च यः सूक्ष्मो महानाकाशतो ऽपि च | जगद्वन्धः स सिद्धात्मा निष्पन्नो ऽत्यन्तनिर्वृतः ॥२७ 1499 ) यस्यानुध्यानमात्रेण शीर्यन्ते जन्मजा रुजः। नान्यथा जन्मिनां सो ऽयं जगतां प्रभुरीश्वरः ॥२८ __1497) यदग्राह्यम्-बहिर्भावरिन्द्रियादिभिर्यत् परमात्मस्वरूपम् अग्राह्यम् । अन्तर्मुखैर्भावेन्द्रियादिभिर्ग्राह्य क्षणं क्षणमात्रम् । पुनः कीदृशम् । तत्स्वभावात्मकं शुद्धचैतन्यात्मकम् । साक्षात्प्रकारेण । इति सूत्रार्थः ।।२६।। अथ पुनरप्यात्मस्वरूपमाह। 1498) अणोरपि च-अणोरपि च यः सूक्ष्मः । चकारात् आकाशतो ऽपि महान् । पुनः कीदृशः । जगद्वन्द्यः समिद्धात्मा निष्पन्नो ऽत्यन्तनिर्वृतः । इति सूत्रार्थः ॥२७॥ अथ पुनरपि तत्स्वरूपमाह। ___1499) यस्यानुध्यान-यस्यानुध्यानमात्रेण जन्मजा जन्मजाता रुजः रोगाः सीद्यन्ते नाश्यन्ते । केषाम् । प्राणिनाम् । नान्यथा सो ऽयं जगतां प्रभुरच्युतः । इति सूत्रार्थः ।।२८।। अथ तस्मिन् ज्ञाने सर्वज्ञानमेवाह । अभ्यन्तर परिणामोंके द्वारा क्षणभरमें ही ज्ञेय-जान लेने के योग्य है । इस प्रकारके स्वभावरूप साक्षात् परमात्माका स्वरूप है ॥२१-२६॥ जो अणुसे भी सूक्ष्म और आकाशकी अपेक्षा भी महान् , सिद्धिको प्राप्त तथा अत्यन्त सुखी है वह सिद्ध आत्मा विश्वके द्वारा वन्दनीय है। अणुसे भी सूक्ष्म कहनेका अभिप्राय यह है कि उसका स्वरूप सर्वसाधारणके लिए ज्ञात नहीं होता, किन्तु आत्मदर्शी विशिष्ट तत्त्वज्ञानी ही उसे जान पाते हैं। और चूँकि वह सचराचर समस्त विश्वका ज्ञाता-द्रष्टा है, इसीलिए उसे आकाशसे भी महान् कहा गया है, कारण यह कि वह अनन्त आकाश भी उसके अनन्त ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होता है ॥२७॥ जिसके ध्यान मात्रसे ही प्राणियोंके जन्मसे उत्पन्न होनेवाले रोग-संसार-परिभ्रमणसे उत्पन्न दुःख-नष्ट हो जाते हैं तथा जिसके ध्यानके बिना वे नष्ट नहीं होते हैं वही यह परमात्मा तीनों लोकोंका प्रभु है । २८|| २. M N यस्यानुष्ठान, L S T F X Y R यस्याणुध्यान । १. All others except P Qक्षणात् । ३. All others except P प्रभुरच्युतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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