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________________ -९०] २६.प्राणायामः ४७१ 1395 ) ज्ञातुर्नाम प्रथमं पश्चाद्यद्यातुरस्य गृह्णाति । दूतस्तदेष्टसिद्धिविपरीते स्याद्विपर्यस्ता ॥८८ 1396 ) जयति समाक्षरनामा वामावाहस्थितेन दूतेन । विषमाक्षरस्तु दक्षिणदिक्संस्थेनात्र संपाते ॥८९ 1397 ) भूतादिगृहीतानां रोगार्तानां च सर्पदष्टानाम् । पूर्वोक्त एव च विधिर्बोद्धव्यो मन्त्रिणावश्यम् ॥९० 1395 ) ज्ञातुर्नाम–दूतो यदि प्रथमं ज्ञातुर्नाम गृह्णाति। पश्चात् आतुरस्य रोगिणः तदा इष्टसिद्धिः । विपर्यस्ते प्रथमम् आतुरनामग्रहणं पश्चात् ज्ञातुः तदा विपर्यस्ता, इष्टसिद्धिनेंति सूत्रार्थः ।।८८॥ अथ पुनर्विशेषमाह। 1396 ) जयति–स रोगी विषमाक्षरनामा वामावाहस्थितेन दूतेन । यदि विषमाक्षरस्तु रोगी दक्षिणदिक्संस्थेन दूतेनास्त्रसंपाते । इति सूत्रार्थः ।।८९।। अथ पुनरेतदेवाह।। 1397 ) भूतादि-पूर्वश्लोकोक्त एव विधिर्बोद्धव्यः ज्ञातव्यः। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।९०॥ अथ पुनरेतदेवाह । यदि दूत पहले ज्ञाताका नाम और तत्पश्चात् रोगीका नाम ग्रहण करता है तो अभीष्टकी सिद्धि होती है। और यदि वह इसके विपरीत करता है-पहले रोगीका और तत्पश्चात् ज्ञाताका नाम ग्रहण करता है तो अभीष्टकी सिद्धि न होकर अनिष्टकी प्राप्ति होती है। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि प्रश्न करते समय यदि प्रथमतः शुभाशुभके वेदक ( अथवा वैद्य) के नामका निर्देश किया जाता है और तत्पश्चात् रोगीके नामका उल्लेख किया जाता है तो इस प्रकारसे अभीष्ट (रोगकी शान्ति ) की सिद्धि समझनी चाहिए । परन्तु यदि प्रश्नकर्ता पहले रोगीके नामका उल्लेख करके पश्चात् ज्ञाताके नामका निर्देश ( सम्बोधन आदि ) करता है तो उस अवस्थामें अभीष्टसिद्धिकी सम्भावना नहीं है ॥८८॥ दूत (प्रश्नकर्ता ) यदि वाम भागमें स्थित होकर युद्ध में किसीके जय-पराजयविषयक प्रश्न करता है तो जिस योद्धाका नाम सम (दो, चार, छह आदि) अक्षरोंमें है उसकी जय होती है। और यदि दूत दक्षिण दिशामें स्थित होकर उक्त प्रश्नको करता है तो विषम ( एक, तीन, पाँच आदि ) अक्षरोंसे युक्त नामवाले योद्धाकी विजय जानना चाहिए ।।८।। भूत-पिशाचादिके वशीभूत हुए, रोगी और सर्पादिके द्वारा काटे गये प्राणियोंके विषयमें प्रश्न किये जानेपर मान्त्रिकको नियमसे पूर्वोक्त (श्लोक ८८) विधि ही जानना चाहिए ।।९०॥ २. K यदि विषमाक्षरनामा १. M N सिद्धिस्तद्वयस्तः, Fतद्वयस्ये, L S T K X Y R तयस्ते । दक्षिण । ३. All others except P नास्त्र। ४. R मान्त्रिकावश्यम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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