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________________ ४५६ ज्ञानार्णवः [२६.३५1336 ) नासाग्रदेशविन्यस्ते धत्ते नेत्रे सुनिश्चले । प्रसन्ने सौम्यतापन्ने निष्पन्दे मन्दतारके ॥३५ 1337) भ्रवल्लीविक्रियाहीनं सुश्लिष्टाधरपल्लवम् ।। सुप्तमत्स्यहृदप्रायं विदध्यान्मुखपङ्कजम् ॥३६ 1338 ) अगाधकरुणाम्भोधौ मग्नः संविग्नमानसः । ऋज्वायतं वपुर्धत्ते प्रशस्तं पुस्तमूर्तिवत् ।।३७ 1339) विवेकवार्धिकल्लोलैर्निर्मलीकृतमानसः । ज्ञानमन्त्रोद्धृताशेषरागादिविषमग्रहः ॥३८ _____1336 ) नासान-नेत्रे सुनिश्चले धत्ते । कीदृशे । प्रसन्ने विकसिते। पुनः कीदृशे । नासाग्रदेशविन्यस्ते सुगमम् । सौम्यतापन्ने सौम्यतायुक्ते । पुनः कीदृशे । निष्पन्दे निमेषोन्मेषरहिते मन्दतारके । इति सूत्रार्थः ॥३५।। अथ पुनस्तदेवाह। 1337 ) भ्रूवल्ली-मुखपङ्कजं वदनकमलम् । कीदृशम् । भ्रूवल्लिविक्रियादीप्तं भ्रूलताविकारदीप्तम् । पुनः कीदृशं वदनपङ्कजम् । सुश्लिष्टाधरपल्लवं प्र-अस्फुट-अधरपल्लवम् । पुनः कीदृशम् । सुप्तमत्स्यह्रदप्रायं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥३६।। अथ पुननिस्वरूपमाह। __1338 ) अगाध-संविग्नमानसः वैराग्योपेतचित्तः । ऋज्वायतं सरलविस्तीर्ण वपुः शरीरं धत्ते। अगाधकरुणाम्भोधौ अगाधदयासमुद्रे मग्नः। कीदृशम् । प्रशस्तं मनोहरं पुस्तमूर्तिवत् ऋज्वायतं धत्ते । इति सूत्रार्थः ॥३७॥ अथ पुनर्योगिस्वरूपमाह। __1339 ) विवेक-विवेकवाधिकल्लोलैविवेकसमुद्रतरङ्गैः निर्मलीकृतं मानसं चित्तं येन सः । पुनः कीदृशम् । ज्ञानमन्त्रोद्धृताशेषरागादिविषमग्रहः सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।३८।। अथ पुनर्योगिस्वरूपमाह। हथेलियोंमें से बाईं हथेलीको नाभिके पास नीचे और उसके ऊपर दाहिनी हथेलीके रखनेपर पर्यंक आसन होता है ॥३४॥ इस आसनमें योगी अतिशय स्थिर, प्रसन्न, शान्त, स्पन्दनसे रहित और पुतलियोंकी मन्दतायुक्त दोनों नेत्रोंको नासिकाके अग्रभागमें रखता है ॥३५॥ ___ इसके साथ ही अपने मुखको वह सोते हुए मत्स्यसे संयुक्त तालाबके समान भृकुटिरूप बेलोंके विकार (कुटिलता) से रहित और अधरोष्ठरूप नवीन पत्तोंके सुन्दर संयोगसे सहित करता है ॥३६|| उस समय दयारूप अथाह समुद्रके भीतर मग्न हुआ योगी मनमें संसारसे भयभीत होकर सीधे व लम्बे उत्तम शरीरको मिट्टी, लकड़ी अथवा वस्त्रसे निर्मित मूर्तिके समान स्थिर करता है ॥३७॥ उक्त स्वरूपवाले पर्यंक आसनसे ध्यानावस्थित हुए जिस योगीका मन विवेकरूप समुद्रकी लहरों द्वारा निर्मल कर दिया गया है, जिसके कुटिल समस्त रागादिरूप ग्रह १. LS FX Y R नेत्रे ऽति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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