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________________ XXV [ध्यानविरुद्धस्थानानि ] 1267 ) अथ प्रशममालम्ब्य विधाय स्ववशं मनः । विरज्य कामभोगेषु धर्मध्यानं निरूपये ॥१ 1268 ) तदेव प्रक्रमायातं सविकल्पं समासतः । आरम्भफलपर्यन्तं प्रोच्यमानं निबुध्यताम् ॥२ 1269 ) ज्ञानवैराग्यसंपन्नः संवृतात्मा स्थिराशयः । ___ मुमुक्षुरुद्यमी शान्तो ध्याता धीरः प्रशस्यते ॥३ 1267 ) अथ प्रशमम्-अथेति आर्तरौद्रध्यानानन्तरं "प्रथममालम्ब्येति सुगमम् । मनः स्ववशं विधाय कृत्वा । च कामभोगेषु विरज्य विरक्तीभूय धर्मध्यानं निरूपय कथयेति सूत्रार्थः ॥१॥ अथ धर्मध्यानमेवाह। ___1268 ) तदेव-तदेव धर्मध्यानं प्रक्रमायातं प्रस्तावागतं विबुध्यतां जानीयताम् । समासतः संक्षेपात् मया प्रोच्यमानं कथ्यमानम् । कीदृशम् । सविकल्पं सभङ्गम् आरम्भफलपर्यन्तम् । सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥२॥ अथ ध्यानयोग्यमाह । ___1269 ) ज्ञानवैराग्य-मुमुक्षुः मोक्तुमिच्छुः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥३॥ अथ मैत्र्यादिभावना दर्शयति । हे भव्य ! तू प्रशम (राग-द्वेषकी शान्ति ) का आश्रय लेकर मनको अपने अधीन करता हुआ विषयभोगोंसे विरक्त हो और धर्मध्यानका अवलोकन कर-उसका विचार कर ॥१॥ वही धर्मध्यान यहाँ प्रसंगप्राप्त है। उसका यहाँ भेद-प्रभेदोंके साथ प्रारम्भसे लेकर फलपर्यन्त संक्षेपसे निरूपण किया जाता है । हे भव्य ! तू उसका अनेक प्रकारसे मनन कर ॥२।। ___जो मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाला ध्याता ज्ञान व वैराग्यसे सहित, बन्धके कारणभूत मिथ्यात्वादि परिणामोंसे रहित, चित्तकी स्थिरतासे संयुक्त, प्रयत्नशील और शान्त होता है वही ध्याता प्रशंसाके योग्य हैं ।।३।। १. MN निरूपयेत्, T निरूपये । २. All others except PM विबुध्यतां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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