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________________ -३७] २१. रागादिनिवारणम् .३९५ 1142 ) इयं मोहमहाज्वाला जगत्त्रयविसर्पिणी । क्षणादेव क्षयं याति प्लाव्यमाना शमाम्बुभिः ॥३४ 1143 ) यस्मिन् सत्येव संसारी यद्वियोगे शिवीभवेत् । जीवः स एव पापात्मा मोहमल्लो निवार्यताम् ॥३५ 1144 ) यत्संसारस्य वैचित्र्यं नानात्वं यच्छरीरिणाम् । यदात्मीयेष्वनात्मास्था तन्मोहस्यैव वल्गितम् ॥३६ 1145 ) रागादिवैरिणः क्रूरा मोहभूपेन्द्रपालिताः । निकृत्य शमशस्त्रेण मोक्षमार्ग निरूपय ।।३७ 1142 ) इयं मोह-इयं मोहमहाज्वाला क्षणादेव क्षयं याति। कीदृशी मोहमहाज्वाला। जगत्त्रयविसर्पिणी जगत्त्रयप्रसरणशीला । पुनः कीदृशी। शमाम्बुभिः उपशमजलै: प्लाव्यमाना सिच्यमाना । इति सूत्रार्थः ।।३४ ॥ [ अथ मोहसामर्थ्यमाह।] ___1143 ) यस्मिन्सत्येव–स एव जीवः यस्मिन् मोहे सति संसारी भवति । यस्य मोहस्य वियोगे निराकरणे सति शिवीभवेत् मोक्षं लभते । अतः पापात्मा पापरूपः मोहमल्ल: मोह एव मल्ल: शक्तिशाली निवार्यताम् । इति सूत्रार्थः ॥३५।। अथ मोहस्यानिवार्यत्वमाह। ___1144. ) यत्संसारस्य-संसारस्य यद्वैचित्र्यं विचित्रता, शरीरिणां मनुष्याणां यन्नानात्वमनेकप्रकारत्वं, यदात्मीयेषु पदार्थेषु अनात्मास्था परबुद्धिनिष्ठता तन्मोहस्यैव वल्गितं वैभवं चेष्टितं वा । इति सूत्रार्थः ।।३६।। अथ मोहस्य स्वरूपमाह। 1145 ) रागादि-हे भव्य, मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शनादित्रयरूपं निरूपय प्रकाशय । शमशस्त्रेण उपशमायुधेन रागादिवैरिणः रागादिशत्रून् निकृत्य छित्त्वा । कीदृशान् । क्रूरान्" रौद्रान् । पुनः शमभावरूप जलके द्वारा डुबोयी गयी वह तीनों लोकोंमें फैलनेवाली मोहरूप विशाल अग्निकी ज्वाला क्षणभरमें शान्त हो जाती है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अग्निकी शान्ति जलसे हुआ करती है उसी प्रकार मोहकी शान्ति राग-द्वेषके उपशमनसे होती है ॥३४॥ जिस मोहके होने पर ही जीव संसारी होता है-जन्म-मरणके दुखको सहता हैऔर जिसके नष्ट हो जानेपर वह उस दुखसे मुक्त होकर कल्याणका भाजन होता है उसी पापरूप मोह-सुभटका निवारण करना चाहिए ॥३५॥ प्राणियोंके जो संसारकी विचित्रता-नर-नारकादिस्वरूप विविधरूपता, भिन्नता और आत्मीय भावोंमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, संयम एवं क्षमा-मार्दवादिमें-आत्मभिन्नताका जो विश्वास होता है वह मोहकी चाल है-उसीके प्रभावसे ऐसा होता है ॥३६।। हे साधो ! ये रागादिरूप शत्रु मोहरूप राजाके द्वारा रक्षित हैं। इसलिए तू उस मोहको और उसके द्वारा रक्षित इन रागादिकोंको शमभावरूप शस्त्रसे काटकर मोक्षमार्गका अवलोकन कर ॥३७॥ १. P वल्गिनम्, F °स्यैव चालितम् । २. All others except P M क्रूरान्........पालितान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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