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________________ ज्ञानार्णवः [१८.११४1012 ) स्वसंवित्तिं समायाति यमिनां तत्त्वमुत्तमम् । आसमन्ताच्छमं नीते कषायविषमज्वरे ॥११४॥ अथवा1013 ) अजिताक्षः कषायाग्निं विनेतुं न प्रभुभवेत् । अतः क्रोधादिकं जेतुमक्षरोधः प्रशस्यते ॥११५ 1014 ) विषयाशाभिभूतस्य विक्रियन्ते ऽक्षदन्तिनः । पुनस्त एव दृप्यन्ति क्रोधादिगहनं श्रिताः ॥११६ 1015 ) इदमक्षकुलं धत्ते मदोद्रेकं यथा यथा । कषायदहनः पुंसां विसर्पति तथा तथा ॥११७ ____1012) स्वसंवित्ति-यमिनां वतिनां स्वसंवित्तिम् आत्मानुभवनं समायाति । कीदशम् । उत्तमं तत्त्वम् । क्व सति । कषायविषमज्वरे आसमन्ताच्छमम् उपशमं नोते सति । इति सूत्रार्थः ॥११४|| अथवा पक्षान्तरमाह । __1013) अजिताक्षः-अजिताक्ष: अजितेन्द्रियः कषायाग्नि विनेतुं विनाशयितुं न प्रभुः समर्थः भवेत् । अतः कारणात् क्रोधादिक जेतुम् अक्षरोध इन्द्रियरोधनं प्रशस्यते ॥११५।। [ पुनस्तदेवाह।] ___1014) विषयाशा-विषयाशाभिभूतस्य विक्रियन्ते ऽक्षदन्तिनः इन्द्रियगजाः विक्रियन्ते । पुनरेवाक्षदन्तिनः क्रोधादिकं गहनम् आश्रिताः दृश्यन्ते । इति सूत्रार्थः ॥११६।। अथेन्द्रियाणां कषायकारणत्वमाह। 1015) इदमक्षकुलं-इदमक्षकुलम् इन्द्रियसमूहः यथा यथा मदोद्रेकं मदाधिक्यं धत्ते तथा तथा कषायदहनः क्रोधवह्निः विसर्पति प्रसरति । इति सूत्रार्थः ॥११७।। अथ कषायजयम् आह । कषायरूप विषमज्वरके सब ओरसे शान्तिको प्राप्त हो जानेपर-कषायके सर्वथा नष्ट हो जानेपर-उत्तम तत्व (परमात्मस्वरूप) मुनि जनोंके स्वसंवेदनको प्राप्त होता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार तीव्र ज्वरमें प्राणीको मूच्र्छाके कारण अपनी कुछ सुध-बुध नहीं रहती है उसी प्रकार क्रोधादि कषायोंके रहनेपर प्राणीको कभी आत्मस्वरूपकी सुधबुध नहीं रहती है-वह आत्मसंवेदन सर्वथा असमर्थ रहता है ।।११४॥ जिसने अपनी इन्द्रियोंपर विजय नहीं प्राप्त की है वह कषायरूप अग्निको नष्ट करनेके लिए समर्थ नहीं होता है। इसलिए उन क्रोधादि कषायोंको जीतनेके लिए इन्द्रियनिग्रहकी प्रशंसा की जाती है ।।११।। जो प्राणी विषयतृष्णासे पराभूत होता है उसके अक्ष ( इन्द्रियाँ) रूप हाथी विकारको प्राप्त होते हैं और फिर वे ही क्रोधादिरूप वनका आश्रय पा करके उन्मत्तताको प्राप्त होते हैं ॥११६|| जैसे-जैसे यह इन्द्रियोंका समूह मदकी तीव्रताको धारण करता है-मदोन्मत्त होता है-वैसे-वैसे मनुष्योंको कषायरूप अग्नि विस्तारको प्राप्त होती है ॥११७॥ १. All others except PN T Y end of Chapter । २. LSJR om. अथवा । ३. All others except P N दृश्यन्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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