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________________ -१०४ ] १८. अक्षविषयनिरोधः 096 ) छायमानमपि प्रायः कुकर्म स्फुटति स्वयम् । अलं मायाप्रपञ्चेन लोकद्वयविरोधिना ॥१०२ 097 ) क्व मायाचरणं हीनं क्व सन्मार्गपरिग्रहः । नापवर्गपथे मूढ संचरन्तीह वञ्चकाः ॥१०३ 098 ) बकवृत्ति समालम्ब्य वञ्चकैर्वश्चितं जगत् । कौटिल्यकुशलैः पापैः प्रसन्नं कश्मलाशयैः ॥१०४ 996 ) छाद्यमानम्-कुकर्म छाद्यमानमपि । प्रायः स्वयं स्फुटति प्रगटीभवति । अतः कारणात् मायाप्रपञ्चेन मायाविस्तारेण अलं श्रितम् । कीदृशेन मायाप्रपञ्चेन । लोकद्वयविरोधिना नाशकत्वेन, इहपरलोकवैरिणा । इति सूत्रार्थः ।।१०२।। अथ मायावतां मोक्षमार्गाभावमाह । 997 ) क्व मायाचरणं-मायाचरणं मायाचरितं क्व । कोदशम् । हीनं होनफलम् । सन्मार्गपरिग्रहः मोक्षमार्गाङ्गीकारः क्व । महदन्तरम् । हे भ्रातः,* इह भवे वञ्चकाः मायाविनः अपवर्गपथि न संचरन्ति । इति सूत्रार्थः ॥१०३॥ अथ कुटिलैर्जगत् वञ्चितमित्याह । 998 ) बकवृत्ति-वश्चकैबूंतर्जगत् वञ्चितम् । किं कृत्वा। बकवृत्ति बकजीववृत्ति समालम्ब्य । कीदृशैवंञ्चकैः। कौटिल्यकुशलः कुटिलताचतुरैः। पुनः कीदृशैः । पापैः कश्मलाशयैः मलिनचित्तः । कीदृशं जगत् । प्रसन्नं निर्मलमिति सूत्रार्थ : ॥१०४॥ [ मायाया अनिष्टतामाह । यदुक्तम् । दोनों लोकोंके विरोधी उस मायाव्यवहारसे छुपाया जानेवाला भी दुष्कर्म प्रायः स्वयं ही फूट जाता है-स्पष्ट हो जाता है। इसीलिए उक्त मायाव्यवहारका सर्वथा त्याग करना चाहिए ॥१०२।। निकृष्ट मायाचार कहाँ और समीचीन मार्गका ग्रहण कहाँ-दोनों में परस्पर विरोध है । हे भाई ! दूसरोंको धोखा देनेवाले मनुष्य यहाँ मोक्षमार्गमें प्रवृत्त नहीं हो सकते हैं ॥१०॥ कुटिलतापूर्ण व्यवहारमें चतुर पापी और मलिन अन्तःकरणवाले धूर्तजन बकवत्तिका आश्रय लेकर निर्मल विश्वको-सीधे व सरल प्राणियोंको- ठगा करते हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार बगुला मछलियोंके पकड़नेके विचारसे उन्हें धोखा देनेके लिए शरीरको स्थिर करके ध्यानकी अवस्था में स्थित हो जाता है और जब मछली सामने आयी कि उसे पकड़कर खा जाता है उसी प्रकार कितने ही धूर्त अपनी कपटपूर्ण धार्मिकताको प्रगट करके दूसरोंको धोखा देते हैं और उनसे अपने स्वार्थ को सिद्ध किया करते हैं ।।१०४।। १. M N पथि प्रायः, All others except PM N पथि भ्रातः । २.Y समासाद्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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